SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 402
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ करते हैं और उनके मुख कमल से कविता प्रस्फुटित हो उठती है। मानो हिमालय से गंगा की निर्झर धारा उद्भाषित हो गई हो 'हम तो पार भये अब साधो ! श्री सिद्धाचल दरश करी रे। आतमराम अनघपद पामी... ॥१॥ उपर्युक्त स्तवन में 'साधो' सम्बोधन कितना प्रभावोत्पादक है? वाह रे साधो ! इस शब्द का अर्थ है तुम आत्मा के विशुद्ध रूप के प्रतिपादक, साधना के प्रतिपादक और पुण्यशाली भव्यत्माओं को उद्बोधन देने वाले हो। गुरुराज द्वारा रचित बारह भावनाओं के छन्द, रस, अलंकार, गुण, वृत्ति, भाव प्रवणता में तो अतिशय प्रवीण है ही साथ में काव्याचार्यों में पद्माकर, चिन्तामणि की साम्यता उनका काव्य करता है। भावभेद यही है कि गुरुराज भक्ति और वैराग्य के कवि है। और ऐसा क्यों न हो? आखिर आत्मा का असली और चरम आराम तो आत्माराम में ही है । अक्षय, अमर, अनघपद तो आत्माराम की दसा में ही मिलेगा। तभी तो गुरुराज ने भक्ति ग्वर का प्रस्तार किया था कि आत्मानंदी प्रथम जिनेश्वर, तेरे चरण शरण रहिए। सिद्धाचल राजा, सरे सब काजा, आनंद रस पी रहिए ॥१॥ कविता के शब्द भौतिक वातावरण से निकाल कर आत्मा को आध्यात्मिक जगत में प्रवेश करा देते हैं। गुरुराज ने जब पंचमस्वर में पुकारा कि “मिटगई रे अनादि पीर, चिदानंद जागो तो सही ॥१॥ इस पंच स्वर को सुनकर कोयल-शरमा गई, पीपहे का हृदय पिघल गया, नारद की वीणा झंकृत हो गई । सबने समवेत स्वर में गाना शुरू कर दिया श्री अर्हन् स्वामी मेरा, छिन नाहिं भूलाना रे। तुम पूजो भवी मनरंगे, भवभय ही मिटाना रे ॥१॥ श्री विजयानंद सूरि : कवि रूप में ३४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy