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________________ गरमी का वह लम्बा दिन उन्होंने बिना पानी और आहार के बिताया। शाम चार बजे फिर आगे के लिए विहार कर दिया । पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज का साठ वर्ष का शरीर विहार की इन अनगिनत प्रतिकूलताओं का सामना नहीं कर सका । वे जैसे तैसे गुजरानवाला पहुंचे। यहां भी उन्होंने शरीर को विश्राम नहीं दिया। अपनी भीतरी अस्वस्थता एवं दैहिक कष्टों का उन्होंने किसी को भी पता नहीं लगने दिया । अन्त में स्थिति यहां तक पहुंच गई कि उनका भौतिक शरीर अब अधिक समय तक यह सब सहने के लिए असमर्थ हो गया। __ संवत् १९५२ और ई. सन् १८९५ का वह वर्ष था और जेठ सुदी सप्तमी का दिन । प्रतिक्रमण के बाद उन्होने कई जिज्ञासुओं से वार्तालाप किया । वार्तालाप के बाद उन्होंने थोड़ा सा विश्राम लिया और रात बारह बजे फिर उठ गए। उन्हें पता लग गया कि अब मेरा शरीर छोड़ने का समय आ गया है। उन्होंने सभी मुनियों को उठाया। मुनि श्रीवल्लभ विजयजी को अपने पास बुलाया और यह अन्तिम संदेश दिया कि “वल्लभ ! श्रावकों की श्रद्धा को स्थिर रखने के लिए मैंने परमात्मा के मंदिरों की स्थापना कर दी है। अब तुम सरस्वती मंदिरों की स्थापना अवश्य करना। जब तक ज्ञान का प्रचार न होगा, तब तक लोग धर्म को नहीं समझेंगे और नहीं समाज का उत्थान होगा। यह काम मैं तुम्हारे कंधों पर डालकर जा रहा हूं।" इस अन्तिम संदेश और आज्ञा को गुरु वल्लभ ने तहत्ती भगवंत' कहकर शिरोधार्य की । फिर हाथ जोड़कर सबकी ओर देखते हुए उन्होंने कहा- लो भाई ! अब हम चलते हैं और सब को खमाते हैं। अर्हन... अर्हन्... रटते हुए उनके प्राणों ने प्रस्थान किया और उनका भौतिक शरीर पट्टे की एक ओर ढल गया । पीछे केवल मुनियों की अपार वेदना और संसार का रुदन रह गया। लो भाई ! अब हम चलते हैं और सब को खमाते हैं। यह उनका अन्तिम वाक्य था। अपनी मृत्यु के समय वे मानसिक रूप से कितने स्वस्थ थे और आत्मिक रूप से कितने जागृत थे, इसकी कल्पना सहज ही हो सकती है। पूज्य श्रीमद् विजयानंद सूरीश्वरजी महाराज के स्वर्गवास के साथ ही एक इतिहास का अन्त हो जाता है। परंतु उन्होंने जिस इतिहास का निर्माण किया है, वह अमर है। वे अपने साहित्य से और जिन शासन प्रभावना के कार्यों से सदा जीवित रहेंगे। कुल मिलाकर साठ वर्ष और दो महीने लगभग वे जीये हैं । इतने कम समय में भी उन्होंने श्रीमद् विजयानंद सूरि: जीवन और कार्य २९९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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