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________________ आगम प्रमाण से असत्य लगती है इसलिए नहीं मानता। यदि तुम्हें मेरी बात पर विश्वास हो तो इस सत्य परंपरा को प्रसन्नता पूर्वक स्वीकार कर सकते हो और असत्य पंरपरा को तिलांजलि दे सकते हो । मैंने तुम्हें सही राह बतायी है, अब मानना या न मानना, यह तुम्हारी इच्छा पर निर्भर है। मेरा कोई आग्रह नहीं है।" उनकी बात सुनकर जो लोग वास्तव में भगवान महावीर स्वामी के सम्यक् मार्ग का अनुसरण करना चाहते थे वे आगम सम्मत मूर्तिपूजक परंपरा में सम्मिलित हो जाते थे। गुजरात में जाकर संविज्ञ दीक्षा अंगीकार करके उन्होंने ई. सन् १८७५ का चातुर्मास अहमदाबाद में किया। यह उनका संवेगी परंपरा का पहला और दीक्षा जीवन का बाईसवां चातुर्मास था। दूसरा ई. सन् १८७६ का चातुर्मास उन्होंने भावनगर में किया । यद्यपि वे दो वर्ष गुजरात में रहे; किन्तु पंजाब के लिए वे निरंतर चिंतित थे । उनका शरीर गुजरात में था और मन पंजाब में । वे जल्दी से जल्दी गुजरात छोड़कर पंजाब में पहुंच जाना चाहते थे। पंजाब में उनकी अनुपस्थिति में जो लोग उनकी प्रेरणा से मूर्तिपूजक बने थे, उन्हें स्थानकवासी प्रमुख श्रावकों एवं साधुओं ने अपनी मूर्तिपूजक विचारधारा को छोड़ देने का आग्रह किया। उन्हें विविध प्रलोभन देकर ललचाया गया। न मानने पर डराया और धमकाया गया। समाज से बहिष्कृत कर देने का भय दिखाया गया; फिर भी पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज के आदेश एवं प्रेरणा की जड़ें इतनी गहरी थी कि उसे सहज ही उखाड़ फेंकना आसान नहीं था। जब वे गुजरात में थे, तब सम्पूर्ण गुजरात के बड़े-बडे श्रीसंघों ने उन्हें अपने नगर में आकर चातुर्मास करने की आग्रहपूर्ण विनती की थी। गुजरात छोड़कर कहीं न जाने की भी उनसे प्रार्थना की गई; पर उन्होंने सभी संघों की विनतियां अस्वीकृत कर दी और भावनगर से पालीताणा की यात्रा कर राजस्थान और पंजाब की ओर उग्र विहार किया। राजस्थान के जोधपुर श्रीसंघ ने उन्हें रोक लिया और ई. सन् १८७७ का चातुर्मास उन्होंने जोधपुर में किया। ___ इस चातुर्मास के बाद वे बीकानेर होते हुए पंजाब में आए। पंजाब में श्रावकगण बड़ी उत्कंठा से उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। उनके आगमन पर पंजाब में सर्वत्र आनंद की लहर दौड़ गई। तब पहली बार पंजाब के जैनों ने आगम शास्त्र के अनुरूप जैन साधु के और जैन साधु के प्राचीन शास्त्रीय वेश के दर्शन किए। शास्त्र सम्मत नये आचार-विचारों की विधिवत रूप से श्रीमद् विजयानंद सूरि: जीवन और कार्य २८७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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