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________________ अहमदाबाद में एक शांतिसागरजी नाम के साधु थे। वे जिनागम विरुद्ध उत्सूत्र प्ररूपणा कर रहे थे । उनका कहना था कि आजकल कोई भी व्यक्ति शास्त्र के अनुसार साधु और श्रावक धर्म का पालन नहीं कर सकता। इसलिए यथार्थ रूप में न कोई साधु है न श्रावक । इस तरह की अन्य अनेक बातें करके वे जैन समाज में भ्रम फैला रहे थे । कोई भी व्यक्ति उनके इस शास्त्र विरुद्ध उत्सूत्र प्ररूपणा के विरुद्ध एक शब्द भी बोलता नहीं था । वास्तव में उस समय कोई ऐसा समर्थ पुरुष था भी नहीं, जो शान्ति सागरजी के साथ शास्त्रीय चर्चा कर सकें । ऐसे में पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज मैदान में आते हैं । शान्तिसागरजी से शास्त्रार्थ करते हैं और दो-तीन प्रश्नों में ही उन्हें धराशायी कर देते हैं । ई. सन् १८८५ में उनका चातुर्मास सूरत में हुआ। यहां हुकम मुनि नाम के श्वेताम्बर जैन मूर्तिपूजक साधु थे । उन्होंने जैन शास्त्रों के विरुद्ध 'आध्यात्मसार' नाम की पुस्तक लिखी थी। वे अपने आपको महान ज्ञानी समझते थे और लोगों को शास्त्रविरुद्ध बातें बताकर उन्हें अधर्म के रास्ते पर ले जा रहे थे । पूज्य श्रीआत्मारामजी महाराज आगम विरुद्ध बातों को कैसे सह सकते थे । उन्होंने मुनि के शास्त्र विरुद्ध पुस्तक 'अध्यात्मसार' को सर्वानुमति से अमान्य कर दिया । उन्होंने गुजरात में विचरण करते हुए देखा कि श्रीसंघों के ज्ञान भंडारों में बहुमूल्य पुस्तकें नष्ट हो रही है। विशेष रूप से उन्होंने पाटण में दुर्लभ - प्राचीन शास्त्र देखे, जो जर्जरित होकर नष्ट हो रहे थे। ज्ञान भंडारों की ऐसी दुर्दशा देखकर उन्होंने अपने दो विद्वान शिष्य मुनि श्री कांतिविजयजी एवं मुनि श्री हंस विजयजी को अपने पास बुलाकर कहा इस समय यदि इन आगमों का उद्धार न किया गया, इन्हें नष्ट होने से न बचाया गया तो हमारे जैन धर्म और इतिहास एक अमूल्य निधि समाप्त हो जाएगी और आने वाला भविष्य हमें इस के लिए कभी माफ नहीं करेगा । उनकी प्रेरणा से मुनि श्रीकांति विजयजी, मुनि श्री हंस विजयजी, मुनि श्री चरण विजयजी एवं मुनि श्रीसंपत विजयजी महाराज ने आगमों के उद्धार एवं संशोधन का कार्य अपने हाथ में लिया। वे कई वर्षों तक इस कार्य के लिए पाटण रुके। और अथक परिश्रम करके आगमों के उद्धार का महान कार्य किया । मुनि श्री कान्ति विजयजी के बाद उनके शिष्य आगम प्रभाकर मुनि श्री पुण्य विजयजी ने यह कार्य किया । इन ज्ञान भंडारों की सुरक्षा के लिए पंजाब केसरी, युगवीर आचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वरजी महाराज की प्रेरणा से पाटण में 'आचार्य श्री हेमचन्द्र सूरि ज्ञान मंदिर' र्माण हुआ है । जो इस कार्य का ज्वलंत उदाहरण है । इस समय पाटण, जैसलमेर, अहमदाबाद (एल.डी.) खंभात, छाणी, लींबड़ी और बड़ौदा श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ २८० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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