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________________ १२. निधानमलजी श्री हीर विजयजी श्री कुमुद विजयजी १३. रामलालजी श्री कमल विजयजी श्री लक्ष्मी विजयजी १४. धर्मचंदजी श्री अमृत विजयजी श्री रत्न विजयजी १५. प्रभुदयालजी श्री नन्द विजयजी श्री रंग विजयजी १६. रामजी लालजी श्री राम विजयजी श्री मोहन विजयजी पूज्य श्रीआत्मारामजी महाराज ने सोलह साधुओं सहित सम्प्रदाय परिवर्तन कर लिया। भगवान महावीर स्वामी की वास्तविक शुद्ध सनातन जैन परंपरा में दीक्षित होने की उनकी बारल वर्षों से उत्कृष्ट अभिलाषा थी। सन् १८६३ के आगरा चातुर्मास में उनके मन में यह अभिलाषा जागृत हुई थी। और सन् १८७४ में होशियारपुर चातुर्मास के बाद अहमदाबाद आने पर उनकी यह चिर अभिलाषा पूर्ण हुई । जैन श्रमण का शास्त्र मान्य वेश धारण कर उन सोलह साधुओं के आनंद की सीमा न थी। जिस वस्तु को पाने के लिए कोई रात-दिन सपना देखता हो और वह बारह वर्ष जितने सुदीर्घ समय अंतराल के बाद प्राप्त हो तो उसे कितनी अपार प्रसन्नता होगी। उसी प्रसन्नता का अनुभव पूज्य श्रीआत्मारामजी महाराज आदि सोलह साधुओं ने किया। गुजरात में जाकर संविज्ञ दीक्षा ग्रहण करने के बाद उनके कार्य और कार्य क्षेत्र का विस्तार हो गया। पहले पंजाब में रहते हुए उनका प्रमुख लक्ष्य पंजाब में केवल सनातन जैन शुद्ध धर्म का प्रचार करना था। अब उनके सामने नयी चुनौतियाँ, नये कार्य, नये विचार और नये क्षेत्र थे। नव चेतना का कार्य सम्प्रदाय परिवर्तन के बाद पूज्य श्री आनंद विजयजी (आत्माराम जी) महाराज के जीवन में एक स्थिरता आती है। चिर अभिलाषित लक्ष्य की प्राप्ति के बाद वे एक विराम पर पहुंचते हैं । और इसी के साथ उनके जीवन तथा कार्यों के नये अध्याय भी प्रारंभ हो जाते हैं। ई. सन् १८७५ तक सम्पूर्ण भारत में अंग्रेजी शासन छा गया था । नये विचार, नये उद्योग, नयी शिक्षाएं, नयी सभ्यता, नये सन्दर्भ और नयी धाराएं जुड़ने लगी थी। इतिहास करवट ले रहा था। एक नये विश्व की संरचना हो रही थी। युगों से जड़ बनी मृत प्राय: परंपरित अंध मान्यताएं एवं विश्वास की बेडियाँ टूट रही थीं। भारत जिसकी भाग्य लिपि में दासत्व के सिवा कुछ नहीं लिखा था, विश्व की अभिनव संचेतना के प्रभाव से मुक्त नहीं रह सका और धीरे-धीरे अंगड़ाई लेने लगा था। भारतीय लोगों में अपने राष्ट्र, नगर, समाज, धर्म, संस्कृति, कुल और जाति के प्रति स्वाभिमान की भावना जागृत होनी प्रारंभ हो गई थी। तत्कालीन जैन धर्म और समाज की स्थिति अत्यन्त दयनीय हो गई थी। चारों और यतियों के शिथिलाचार का साम्राज्य फैला हुआ था । लोग धर्म का वास्तविक अर्थ न समझ कर यतियों के मंत्र-तंत्र के चंगुल में फंसे हुए थे। प्राचीन मंदिर और ज्ञान भंडार विनाश के कगार पर २७८ श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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