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________________ धर्म का वास्तविक स्वरूप संसार के समक्ष रखने का विचार किया। गुरु आतम ने अपने विचारों के प्रचार का संकल्प किया; परंतु वे इस विषय में दरदर्शिता से काम लेना चाहते थे। उन्हें यह बात अच्छी तरह ज्ञात थी कि देश और समाज की परिस्थिति की उपेक्षा कर यदि मैं प्रचार करूंगा तो असफलता ही हाथ आएगी। हर नई चीज की शुरुआत के लिए पहले भूमिका तैयार करनी आवश्यक है। आत्मारामजी ने देखा कि संसार का त्याग कर साधु का वेश धारण करना उतना कठिन नहीं है जितना कि झूठे सांप्रदायिकता के बंधनों को तोड़ना या तुड़वाना कठिन है। इसलिए उन्होंने इसी सांप्रदायिकता की चहार दीवारी में रहकर ही मूर्तिपूजा का प्रचार करना प्रारंभ किया। सबसे पहले उन्होंने विश्नचंदजी महाराज को अपना अनुयायी बनाया । और वे भी इस क्रांति के आन्दोलन चलाने में उनके बाएं हाथ का काम देने लगे। फिर श्रावकों को भी प्रयत्न पूर्वक अपने विचारों के अनुकूल बनाया। इस प्रकार वे जहां-जहां भी जाते, वहां-वहां समझदार श्रावकों को मूर्तिपूजा, जैन आचार व सिद्धान्त बताते यदि कोई संदेह व्यक्त करता तो शास्त्र का प्रमाण देकर उसका समाधान करते । परिणामत: हजारों लोगों में विश्वास पैदा हो गया और धीरे-धीरे मूर्तिपूजकों की संख्या में वृद्धि होती गई। इतिहास जानता है कि प्रत्येक क्रांतिकारी महापुरुष को प्रारंभ में तीव्र विरोध का सामना करना पड़ा है। पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज के साथ यही हुआ। स्थानकवासी समाज के साधुओं और श्रावकों ने उनके विरोध में आवाज उठाई । उन्होंने सभी शहरों में यह समाचार भेज दिए कि आत्मारामजी पथभ्रष्ट हो गए हैं इसलिए उन्हें और उनके साधुओं को न कोई आश्रय दें, न उनका प्रवचन सुने न गोचरी दें न पानी। कई बार पूज्य आत्मारामजी महाराज को भूखे और प्यासे रहना पड़ा। जब आत्मारामजी महाराज को यह विश्वास हो गया कि अब पंजाब के समझदार श्रावक मूर्तिपूजा में दृढ़ हो चुके हैं। तब उन्होंने गुजरात और राजस्थान की ओर विहार किया। अहमदाबाद में पहुंच कर उन्होंने अपने सत्रह मुनियों के साथ श्री बुद्धिविजयजी महाराज से संवेगी दीक्षा ग्रहण की । तब से उनका नाम आनंद विजयजी हुआ। सौराष्ट्र में उन्होंने शत्रुजय महातीर्थ की यात्रा की। भगवान आदिनाथ के दर्शन कर वे धन्य-धन्य हो गए। उनका रोम-रोम पुलकित हो गया। उनका अन्त:करण पश्चाताप से भर उठा और हृदय से यह उद्गार फूट पड़े 'अब तो पार भए हम साधो, श्री सिद्धाचल परस करी रे। २५४ श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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