SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 303
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गणि (श्री मूलचन्दजी महाराज) ही ऐसे मुनिराज हैं जिनके पास दीक्षा लेने से मेरा प्रयोजन सिद्ध हो सकता है मैं शासनपति देवाधिदेव इस अवसर्पिणी काल के चरम तीर्थपति भगवान् श्री महावीर स्वामी जी की प्राचीन परंपरा का पालन करता हुआ कर्मनिर्जरा कर सकता हूँ । (मुक्तिविजयजी गणी श्री बूटेरायजी महाराज के परमकृपापात्र प्रथम शिष्य थे) इस विषय में भी गुरु आतम ने अपने साथी मुनियों के साथ विचार विनिमय किया । विचार विनिमय के बाद गुरुवर श्री आत्मरामजी महाराज ने निर्णय के रूप में एक छोटा सा पत्र श्री मुक्ति विजयजी गणी जी के पास यह लिखकर प्रेषित किया कि 'हम १७ साधु आपके पास आ रहे हैं ।' ऐसा पत्र भिजवाकर गुरुवर ने अपने साथी मुनियों श्री विशनचन्दजी महाराज, श्री चंपालाल जी महाराज, श्री हुक्मचन्दजी महाराज, श्री सलामत राय जी महाराज आदि के साथ अहमदाबाद की ओर विहार किया और जब वे अहमदाबाद पधारे तो वहां के श्रीसंघ ने उनका भव्यातिभव्य स्वागत किया। प्रवेश के पश्चात् सेठ श्री दलपतभाई भगुभाईजी के विशाल बंगले में 'धर्म क्या है ?' इस विषय पर धारा प्रवाह रूप से गंभीरध्वनि में मार्मिक और प्रमाण पुरस्सर प्रवचन करना प्रारम्भ किया। प्रवचन में गुरुवर श्रीआतमजी ने धर्म से संबंधित आत्मिक और व्यावहारिक दृष्टिकोणों के साथ साथ धर्म के कुछ स्थूल और कुछ सूक्ष्म विषयों का हृदयस्पर्शी विवेचन तो किया ही, साथ ही साथ स्वयं के आगमन का हेतु भी बताया । गुरु के प्रवचन सुनकर सारी सभा वैसे ही मुग्ध थी जैसे कि बीन की मस्तध्वनि को सुनकर नाग मुग्ध बन जाता है और ध्वनि में स्वयं की सुध-बुध भूल जाता है। ज्यों ही गुरुदेव ने दो घंटे के पश्चात प्रवचन समाप्ति के अवसर पर मांगलिक पाठ सुनाया तो लोगों को ध्यान आया कि दो घंटों का समय व्यतीत हो चुका है । सभी लोग गुरुदेव एवं अन्य मुनियों को वंदन कर बिखर गए । गुरुदेव पट्टे से ज्यों ही नीचे उतरे, त्योंही श्रेष्ठिवर्य श्री दलपतभाई गुरुदेव के सामने उपस्थित हुए । गुरुदेव ने उन्हें कहा- 'हमारे पंजाब के श्री मुक्तिविजयजी गणि (श्री मूलचन्दजी महाराज) कहां है? हमें वहीं जाना है, हमें वहीं ले जाओ।' इस आज्ञा को सुनकर सेठ श्री दलपत भाई गुरुदेव को मुनि मण्डल सहित उजमबाई की धर्मशाला (रतनपोल के उपाश्रय) में ले आए। वहां पर जैसे ही गुरुदेव ने निसीहि, निसीहि, निसीहि कह कर 'मत्थएण वंदामि' की उच्च, मधुर ध्वनि के साथ प्रवेश किया तो सामने ही श्री मूलचन्दजी महाराज बिराजमान थे । उन्हें वंदन कर गुरुदेव ने तुरंत कहा- 'मैं आपका शिष्य होने आया हूँ' यह सुनते ही मुनिराज श्री मुक्तिविजयजी म. (श्री मूलचन्दजी महाराज) ने उन्हें कहा- 'मैं आपको अपना शिष्य तो नहीं, मगर गुरुभाई जरूर बनाता हूँ ।' ऐसा कहकर वे इन्हें एवं अन्य मुनिजनों को उनके गुरुजी श्री बूटेराय श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ २५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy