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याद कर लेते थे ।
ज्ञान स्व-पर कल्याणकारी है, जो ज्ञान स्वयं तक सीमित है, वह परोपकारी नहीं बन सकता। महापुरुष करुणा के सागर होते है । करूणा से प्रेरित वे लोगों को सत्यपथ दिखाते हैं । इस रूप में श्री आत्मारामजी ने एक कदम और बढ़ाया ।
संकुचित वृत्ति अपनाते तो वे यह कार्य नहीं कर सकते थे, यह उनकी विशाल दृष्टि है ।
जब विदेश से निमंत्रण आया तो वे मर्यादा का उल्लंघन कैसे करते । वे मर्यादा पुरुषोत्तम की तरह संयम के प्रति निष्ठावान थे। किन्तु विदेश की धरती पर प्रचार के मौके को वे चूकना नहीं चाहते थे, और स्वयं मर्यादा का भंग भी नहीं चाहते थे । इस के लिए उन्होंने महुवा के प्रतिभाशाली श्री राघवजी गांधी को अपने समीप रखा। उन्हें अल्पसमय में जैन धर्म के सिद्धान्तों का ज्ञान प्रदान किया ।
ज्ञान उपलब्ध कर वीरचंद राघवजी उनके प्रतिनिधि बनकर विदेश गए । उन्होंने जैन धर्म सिद्धान्तों का सुन्दर रूप से प्रचार किया। उन्होंने वहाँ की जनता तक सत्य सिद्धान्तों के प्रचार पूर्व काम किया।
श्री विजयानंद सूरीश्वरजी ने विदेश में जैन धर्म के अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह के सिद्धान्तों के प्रचार में परोक्ष रूप से अभूतपूर्व कार्य किया ।
विचारों में अनेकान्त, आचार में अहिंसा और अपरिग्रह को अपनाकर आज का अशांत समाज, राष्ट्र और विश्व शांति को उपलब्ध कर सकता है ।
आज के अशांत भौतिक वाद के युग में मानव को इसकी नितांत आवश्यकता है । आज के विज्ञान के साधनों ने जहाँ सुविधा दी है, वहां अशांति का दावानल भी सुलगा दिया है। जिससे मानव की मानसिक शांति खो गई है एवं पारिवारिक एवं सामाजिक अनेक समस्याएं खड़ी हो गई हैं । धार्मिक एवं नैतिक सनातन मूल्यों का ह्रास हो रहा है । मानवता लुप्त हो रही है । सौहार्द और सहानुभूति की भावना समाप्त हो रही है। अतः इन मूल्यों की जीवन में, समाज एवं संसार में पुनर्स्थापना हो, यह जरूरी है ।
समाज के हित की भावना आचार्य श्री के मानस में समाहित थी । अतः विश्वमंगल की शुभ भावना से उन्होंने संसार के कोने-कोने में भगवान महावीर के महान् सिद्धान्तों के प्रचार का कार्य किया ।
जो पाता है वह बांटता है । वह अपनी ज्योति को समेटता नहीं हैं। ज्योति फैलती है, अंधकार मिटता है । वे बांटने वाले महापुरुष थे । आत्मा की गहराई में जो पाया, उसे उन्होंने श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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