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________________ मुनि से स्पष्टिकरण मांगा। ज्ञान के अधूरे हुक्ममुनि से कुछ उत्तर देते नहीं बना । श्री विजयानंद सूरि महाराज ने उस पुस्तक को ही जैन धर्म और समाज के द्वारा अमान्य करवा दी। वे असत्य की पुष्टि के लिए किसी भी प्रकार का समझौता करने के लिए तैयार नहीं थे और सत्य स्वीकार के लिए वे किसी भी प्रकार का बलिदान करने के लिए उद्यत रहते थे । सत्य का स्वीकार और असत्य का परिहार उनके व्यक्तित्व के अभिन्न अंग थे। सत्य की प्रतिष्ठा के लिए वे आजीवन जूझते रहे थे । जैन धर्म के सिद्धान्तों का प्रचार और प्रसार उनके जीवन का अहम लक्ष्य था। उनके समकालीन संत और विद्वान जैन धर्म के वास्तविक तत्त्व को न समझकर जैन धर्म को ही झूठला रहे थे। उनमें प्रमुख थे दयानंद सरस्वती। उन्होंने अपने 'सत्यार्थ प्रकाश' में जैन धर्म को ढोंगियों का धर्म कहा है। दयानंद सरस्वती के कारण पूरा आर्य समाज जैन धर्म पर टूट पड़ा था। उस समय आर्य समाजी प्रचारक घर-घर घूमते थे और लोगों को अपनी अनुचित बातें समझाकर गुमराह कर रहे थे। श्री विजयानंद सूरि महाराज ने दयानंद सरस्वती के विरोध में अपनी आवाज बुलंद की और उनके विचारों के खंडन में 'अज्ञान तिमिर भास्कर' और 'तत्त्व निर्णय प्रासाद' लिखा। उन्होंने पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश एवं राजस्थान के हजारों जैन धर्म के विरोधी आर्य समाजी प्रचारकों के विचार बदल दिए और उन्हें जैन धर्म का प्रशंसक बना दिया। उस समय भारत में अंग्रेजी शासन था और अंग्रेजी ईसाई धर्म का प्रभाव भारत में बढ़ा रहे थे। कई भारतीय हिन्दू लोभ-लालच में पड़कर ईसाइयों से प्रभावित होकर ईसाई धर्म अंगीकार कर रहे थे । बहुत से जैन परिवार ईसाई हो चुके थे और बहुत से हो रहे थे। जिसे जैन नगरी होने का गर्व है ऐसे अहमदाबाद के कई प्रतिष्ठित श्रावकों के युवक ईसाई हो रहे थे । उन दिनों श्रीविजयानंद सूरि महाराज का अहमदाबाद में आगमन हुआ। श्रीसंघ के प्रमुख ने उनसे निवेदन किया कि कुछ अपने युवक ईसाइयों से प्रभावित होकर ईसाई बन रहे हैं आप उन्हें बचाइए। श्री विजयानंद सूरि महाराज ने उन युवकों को बुलाया बातचीत की। उन्हें जैन धर्म की विशेषताएं बताई और कहा कि विश्व का सर्वश्रेष्ठ धर्म जैन धर्म है। इस धर्म के पास जैसी विशेषताएं हैं वैसी संसार के किसी भी धर्म, पंथ और संप्रदाय के पास नहीं है। उनकी बातें सुनकर उन युवकों ने ईसाई धर्म अंगीकार करने का विचार छोड़ दिया और गुरु विजयानंद : एक विराट् व्यक्तित्व २३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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