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________________ साधुता के शिखर ___- आचार्य श्री रत्नाकर सूरि नवयुग निर्माता, न्यायाम्भोनिधि आचार्य श्रीमद् विजयानंद सूरीश्वरजी महाराज को यदि हम साधुता के शिखर और त्याग तथा चारित्र के परम आदर्श पुरुष कहें तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। तब जब शिथिलाचारियों का बोलबाला बढ़ गया था। शास्त्रीय अमृत क्रिया को तिलांजलि दे दी गई थी। ऐसे में श्री विजयानंद सूरि महाराज ने सुविहित शास्त्रीय क्रियोद्धार किया। वे अपनी साधु क्रिया और चारित्र पालन के प्रति अत्यन्त जागृत थे। आगमों में इस बात का निर्देश है कि साधु को कैसा वेष पहनना चाहिए, मुहपत्ति का माप क्या होना चाहिए, दंडे का कितना प्रमाण होना चाहिए, चोलपट्टा, पांगरणी और चादर कितने लंबे-चौड़े होने चाहिए। साधु को दिन में दो बार पडिलेहन, सात बार चैत्यवंदन और देवसी तथा राई प्रतिक्रमण करने का शास्त्रीय विधान है । साधु के लिए आवश्यक शास्त्र में निहित क्रियाओं का वे अक्षरश: पालन करते थे और अपने शिष्यों को उन्हीं का अनुसरण करने का आग्रह रखते थे। शास्त्रीय विधि पर उन्हें कितनी श्रद्धा थी इस बात को हम उनकी संवेगी दीक्षा लेने की घटना से अच्छी तरह समझ सकते हैं। स्थानकवासी दीक्षा से उनका विश्वास उठ गया था। वे उस वेष को अशास्त्रीय मानते साधुता के शिखर २२९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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