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________________ सर्वाधिक प्रभावित किया था। एक अन्य घटना सुनाते हुए गुरु वल्लभ ने कहा था कि जो भी दर्शनार्थी आता, उसकी दृष्टि पूज्य गुरुदेव के अतिरिक्त मुझ पर भी पड़ती। सभी मुझे पढ़ते लिखते या गुरुदेव को अखबार सुनाते पाते तो उनसे पूछते कि 'ये छोटे महाराज क्या पढ़ते हैं? पूज्य गुरुदेव मुस्कराकर उत्तर देते- “ये पंजाब की रक्षा पढ़ते हैं।” यह सुनकर श्रावक एक दूसरे का मुंह देखने लगते। गुरुवर तब पूरी गम्भीरता से कहते- “मैं इसको पंजाब के लिए तैयार कर रहा हूं मुझे विश्वास है कि यह पंजाब की रक्षा अवश्य करेगा।” एक अन्य घटना जो उपरोक्त संस्मरण से जुड़ी है। गुरु वल्लभ ने इस प्रकार सुनायी थी"पूज्य गुरुदेव यह निश्चय कर चुके थे कि मुझे पंजाब में शिक्षा व धर्म प्रचार-प्रसार के लिए कार्य करने की जिम्मेदारी देनी है। इसलिए मेरे प्रत्येक क्रिया-कलाप पर पूरा ध्यान देते कई बार आगम की सूक्तियों के उद्धरण से मुझे व्यापक दिशा तथा दृष्टिकोण देते, साथ ही कहते कि जब प्रवचन दो तो श्रोताओं के मानसिक स्तर का अवश्य ध्यान रखो।” किसी भी प्रकार के धार्मिक कार्य होते, तो मुझे ही सम्पन्न कराने के लिए भेजते । एक बार जीरा में श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ मन्दिर की प्रतिष्ठा का कार्यक्रम था। गुरुवर बोले- “वल्लभ । आप प्रतिष्ठा का कार्य सम्पन्न कराएंगे। मैंने कहा- “गुरुवर। आपके रहते मुझे इतने महान् कार्यों के सम्पादन की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है और फिर मुझे प्रतिष्ठादि का अभी कोई अनुभव भी नहीं है।” किन्तु वे बोले, "तुम्हें धीरे-धीरे सारी जिम्मेदारियां सम्भालनी हैं। मैं तुम्हें प्रत्येक कार्य का जानकार बना देना चाहता हूं, मात्र किताबी ज्ञान से ही तुम सामाजिक चेतना का कार्य नहीं कर सकते।” गुर्वाज्ञा से मैंने उस मन्दिर की प्रतिष्ठा और अंजनशलाका की सारी विधियां सम्पन्न कराई थी।" गुरु वल्लभ ने अपने अध्ययन को लेकर बड़ी रोचक घटना सुनाई थी, “मेरे अध्ययन के प्रति उत्कृष्ट अभिलाषा रहती थी और जब भी जहां भी कोई जैन न्याय, सांख्य, योग आदि दर्शन का विद्वान मिलता मैं अवश्य अध्ययन करता था। उन दिनों श्री वीर विजय जी म. सा. के पास भावनगर से सेठ कुंवर जी आनंद जी का पत्र आया था, जिसमें लिखा था कि पालीताणा में एक संस्कृत पाठशाला खुली है, जिसमें अच्छे विद्वान अध्ययन कराते हैं। श्री वीर विजयजी बोले कि तुम्हारे लिए यह एक अच्छा अवसर है, तुम वहां अपने अध्ययन की अभिलाषा पूरी कर सकते हो । इधर-उधर भटक कर अलग-अलग पण्डितों से अध्ययन करने की अपेक्षा एक स्थान पर रहकर अध्ययन करना ज्यादा अच्छा रहेगा।" मेरे हृदय पर इस प्रेरणा का अनुकूल प्रभाव पड़ा। मैने कहा, “आपका कहना ठीक है, परन्तु पूज्य गुरुदेव की आज्ञा के बिना तो मैं एक कदम भी नहीं २२६ श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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