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________________ वि.सं. की १६वीं शती के अंतिम चरण से मलधारगच्छ से सम्बद्ध साक्ष्यों की विरलता इस गच्छ के अनुयायियों की घटती हुई संख्या का परिचायक है । वि.सं. की १७वीं शती के इस गच्छ से सम्बद्ध मात्र दो साक्ष्य मिलते हैं। इनमें प्रथम है सिन्दूरप्रकरवृत्ति ६ जो मलधारगच्छीय गुणनिधानसूरि के शिष्य गुणकीर्तिसूरि द्वारा वि.सं. १६६७/ईस्वी सन् १६११ में रची गयी है। इसी प्रकार वि.सं. १६९९ के प्रतिमालेख में इस गच्छ के महिमाराजसूरि के शिष्य कल्याणराजसूरि का प्रतिमाप्रतिष्ठापक के रूप में उल्लेख मिलता है । यह मलगरगच्छ का उल्लेख करने वाला अंतिम उपलब्ध साक्ष्य है। यद्यपि इनसे वि.सं. की १७वीं शती के अन्त तक मलधारगच्छ का स्वतंत्र अस्तित्व सिद्ध होता है , तथापि वह अपने पूर्व गौरवमय स्थिति से च्युत हो चुका था और वि.सं. की १८वीं शती से इस गच्छ के अनुयायी ज्ञातियों को हम तपागच्छ से सम्बद्ध पाते हैं।१८ इस गच्छ के प्रमुख आचार्यों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है : अभयदेवसूरि : श्वेताम्बर परम्परा में अभयदेवसूरि नामक कई आचार्य हो चुके हैं। विवेच्य अभयदेवसूरि प्रश्नवाहनकुल व मध्यमाशाखा से सम्बद्ध हर्षपुरीयगच्छ के आचार्य जयसिंहसूरि के शिष्य थे। प्रस्तुत लेख के प्रारम्भ में इस गच्छ के मुनिजनों द्वारा रचित जिन ग्रन्थों की प्रशस्तियों का विवरण दिया जा चुका है, उन सभी में इनके मनिजीवन के बारे में महत्वपूर्ण विवरण संकलित है।१९ चौलुक्य नरेश कर्ण (वि.सं. ११२०-११५०) ने इनकी निस्पृहता और त्याग से प्रभावित होकर इन्हें "मलधारि" विरुद् प्रदान किया। कर्ण का उत्तराधिकारी जयसिंहसिद्धराज (वि.सं. ११५०-११९९) भी इनका बड़ा सम्मान करता था। इनके उपदेश से उसने अपने राज्य में पर्युषण और अन्य विशेष अवसरों पर पशुबलि निषिद्ध कर दी थी। गोपगिरि के राजा भुवनपाल (वि.सं. की १२वीं शती का छठा दशक) और सौराष्ट्र के राजा राखेंगार पर भी इनका प्रभाव था। अपनी आयुष को क्षीण जानकर इन्होंने ४५ दिन तक अनशन किया और अणहिलपुरपत्तन में स्वर्गवासी हुए। इनकी शवयात्रा प्रात: काल प्रारम्भ हुई और तीसरे प्रहर दाहस्थल तक पहुंची । जयसिंह सिद्धराज ने अपने परिजनों के साथ राजप्रासाद की छत पर से इनकी अंतिम यात्रा का अवलोकन किया। इनके पट्टधर हेमचन्द्रसूरि हुये। हेमचन्द्रसूरि :जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है आप हर्षपुरीयगच्छालंकार अभयदेवसूरि के शिष्य और हर्षपुरीयगच्छ अपरनाम मलधारीगच्छ का संक्षिप्त इतिहास १७५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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