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________________ क्या वह अभिमान या एहसान अनुभव करती है कि मैं स्तनपान कराती हूं । नहीं? इसमें दोनों को ही आनन्द का अनुभव होता है, और दोनों के बीच मधुर वात्सल्य रस बहता है। अध्ययन-अध्यापन में गुरू-शिष्य की भी यही भूमिका होनी चाहिए।" इसी सिलसिले में कैनेथ वाउल्डींग का एक बहुत सुन्दर वाक्य है-When we love, we increase love with others, and inourselves, as a teacher increases know ledge within this student and himself by the simple art of teaching. "जब हम प्रेम करते हैं, तब प्रेम को बढ़ाते हैं, औरों में और अपने में, जैसे कि एक शिक्षक ज्ञान को बढ़ाता है, विद्यार्थियों में और अपने में-सिखाने की एक सादी सी क्रिया के द्वारा।" गुरू-शिष्य का यह मातृ-भाव ही जैन सूत्र दशवैकालिक के ९वें अध्ययन में विचित्र सुन्दर उपमाओं द्वारा अभिव्यक्त हुआ है। उपनिषद में एक वाक्य आता है- तेजस्विनावधीतमस्तुहमारा अध्ययन तेजस्वी हो । हमारा ज्ञान जीवन में प्रकाश और तेज पैदा करे । दशवैकालिक में भी कहा है- गुरूजनों का आशीर्वाद प्राप्त करने वाले शिष्य का ज्ञान, यश और तेज शीतल जल से सींचे हुए पादप की भांति बढ़ते हैं जल सित्ता इव पायका। तथा जैसे सिंचित अग्नि का तेज बढ़ता है, वैसे ही विनय से प्राप्त विद्या तेजस्वी होती है। इसी अध्ययन में विनय और अविनय का फल बताते हुए आचार्य ने बहुत ही स्पष्ट बात कही है विपत्ति अविणीयस्स संपत्ति विणियस्स । अविनीत को सदा विपत्ति और विनीत को संपत्ति प्राप्त होती है, जिसने यह जान लिया है, वही शिष्य गुरूजनों से शिक्षा और ज्ञान प्राप्त कर सकता है। . शिक्षा का उद्देश्य जैन आगमों व अन्य व्याख्या ग्रंथों के परिशीलन से इस बात का भी पता चलता है कि विद्यार्थियों को सिर्फ अध्यात्म ज्ञान ही नहीं, किंतु सभी प्रकार का ज्ञान दिया जाता था। भगवान ऋषभदेव ने आत्मज्ञान से पूर्व अपने पुत्र-पुत्रियों को ७२ एवं ६४ प्रकार की कलाएं तथा विविध विद्या, शिल्प आदि का प्रशिक्षण दिया था। इन कलाओं की सूची से स्पष्ट होता है कि इन में वस्त्र निर्माण, वास्तु कला, कृषिकला, गायन कला, शासन कला (राजनीति), काव्यकला, नृत्यकला, युद्धकला, मल्लविद्या, यहां तक की काम कला का भी समावेश था। व्यक्तित्व के समग्र विकास की दिशा में 'जैन शिक्षा प्रणाली की उपयोगिता' १५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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