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________________ इसका आशय यही है कि जन साधारण की रुचि की रक्षा के लिए नाट्य मंच पर पात्रों के संवादों में संस्कृत के साथ-साथ प्राकृत भाषा को स्थान देना उस समय में आवश्यक था। यदि विद्वद्-वर्ग को संस्कृत प्रिय थी, तो सामान्य जन को प्राकृत भाषा समान रूप से प्रिय थी। अतएव अपने अभिनेय रूपकों को प्रसिद्ध और लोकप्रिय बनाने के लिए ही संस्कृत के नाटककारों ने प्राकृत को अपने नाटकों में उचित स्थान दिया । लोक की साधारण व्यवहार की भाषा के प्रति प्राचीन नाट्य रचयिताओं का यह दृष्टिकोण सर्वथा समीचीन था। उन्होंने संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं का समान रूप से प्रयोग करके अपने विशद भाषा ज्ञान का परिचय दिया है। वस्तुत: वह दोनों भाषाओं के व्याकरणों के मर्मज्ञ थे। प्राकृत भाषा समृद्ध भाषा है। 'प्राकृत शब्दानुशासन' में प्राकृत की प्रशंसा करते हुए लिखा गया है कि अनल्पार्थ: सुखोच्चारः शब्दः साहित्यजीवितम्। स च प्राकृतमेवेति मतं सूत्रानुवर्तिनाम् ॥' अर्थात् ‘साहित्य को संजीवन प्रदान करने के लिए ऐसे शब्दों की आवश्यकता है, जिनमें अर्थ बहुलता हो, उच्चारण सुखपूर्वक हो और इसके लिए प्राकृतभाषा ही उपयुक्त है।' प्राकृत भाषा के सभी प्राचीन वैयाकरणों ने प्राकृत की उत्पत्ति संस्कृत से मानी है । संस्कृत भाषा को ही आधार मानकर उन्होंने प्राकृत के ध्वनि-भेद आदि का विवरण दिया है। हेमचन्द्र आदि का यही विचार है प्रकृति: संस्कृतम् तत्र भवं तत् आगतं वा प्राकृतम् । प्रकृति का अर्थ है-मूलभाषा संस्कृत, उससे उत्पन्न भाषा प्राकृत है । 'प्रकृति: संस्कृतं तत्र भवं प्राकृतमुच्यते' (प्राकृत-सर्वस्व) आदि अनेक कथनों से उपर्युक्त बात प्रमाणित होती है। इस प्रकार संस्कृत का ही विकृत रूप प्राकृत है। रूद्रट ने अपने 'काव्यालंकार' ग्रन्थ में 'तथा प्राकृतमेवापभ्रंशः' कहकर इसे प्राकृत और अपभ्रंश नाम दिये हैं। ईसा पूर्व तक संस्कृत जनभाषा और लोक व्यवहार की भाषा थी। इसके दो रूप थे—(१) साहित्यिक (२) जनभाषा । साहित्यिक भाषा में परिवर्तन बहुत कम होते थे, परन्तु जनभाषा वाली संस्कृत स्वाभाविक रूप से प्रचलित रही । इसमें ध्वनिभेद, शब्द-भेद आदि प्रचुर मात्रा में चलते रहे । जन भाषा में परिनिष्ठता नहीं थी। यही संस्कृत भाषा विकसित होते हुए प्राकृतों के रूप में प्रसिद्ध हुई। इसमें अनेक नवीन भारत के सांस्कृतिक अभ्युदय में प्राकृत का योगदान १३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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