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________________ शती) ने इस पर तत्त्वबोधविधायिनी नामक विशाल टीका का निर्माण करते समय प्रमाण का विशद विवेचन किया है। जैन दर्शन पर संस्कृत रचनाओं में उमास्वाति (द्वितीय शती) का नाम सर्वप्रथम आता है। उमास्वाति ने पांच ज्ञानों को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष इन दो प्रमाणों में विभक्त कर दिया था। वे मति एवं श्रुतज्ञान को परोक्ष तथा अवधि, मन: पर्यव एवं केवलज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण में रखते हैं। उमास्वाति के टीकाकार पूज्यपाद देवनन्दी का भी इस दृष्टि से प्रमाण-चिन्तन उभरकर आता है और वे प्रमाण की परिभाषा करते है- प्रमिणोति प्रमीयतेऽनेन प्रमितिमात्रं वा प्रमाणम्। आचार्य समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा, युक्यनुशासन एवं स्वयम्भूस्तोत्र में आप्त की स्तुति करते हुए अनेकान्तवाद का स्थापन किया है किन्तु कुत्रचित् प्रमाण का स्वरूप एवं आप्तवचन का स्वरूप भी निरूपित किया है। श्वेताम्बर दार्शनिक मल्लवादी क्षमाश्रमण ने बौद्ध दार्शनिक दिङ्नाग का खण्डन करते समय अपनी रचना 'द्वादशारनयचक्र' में प्रमाण की अवधारणा को स्पष्ट किया है । वे प्रमाण को सविकल्पक सिद्ध करते हैं ।४ भट्ट अकलंक के पूर्व सुमति, पात्रकेसरी आदि अन्य उद्भट दार्शनिक भी हुए हैं किन्तु इनकी कृतियां अनुपलब्ध हैं। सुमति एवं पात्रकेसरी के मत का खण्डन बौद्ध दार्शनिक शान्तरक्षित के तत्त्वसंग्रह में मिलता है। पात्रकेसरी ने जैन हेतु-लक्षण का स्थापन करते हुए बौद्धों द्वारा मान्य त्रिलक्षण हेतु का खण्डन किया है। पात्रकेसरी कृत खण्डन का एक श्लोक उत्तरवर्ती सभी दार्शनिकों ने अपनाया है, वह है : अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम्। नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥ सभी जैन दार्शनिकों ने हेतु की साध्य के साथ अन्यथानुपपत्ति स्वीकार की है और इसे ही वे हेतु का लक्षण स्वीकार करते हैं । भट्ट अकलंक के अनन्तर जैन नैयायिकों में विद्यानन्द (७७५-८४० ई.) अनन्तवीर्य (९५०-९९० ई.), माणिक्यनन्दी (९९३-१०५३ ई.), वादिराज (१०२५ ई.) प्रभाचन्द्र (९८०-१०६५ ई.), आदि दिगम्बर तथा अभयदेव (१०वीं शती), वादिदेव (१०८६-११६९ ई.) हेमचन्द्र (१०८८-११७३ ई) यशोविजय (सतरहवीं शती) आदि श्वेताम्बर दार्शनिक प्रमुख हैं। इन सभी जैन दार्शनिकों ने भट्ट अकलंक द्वारा प्रतिष्ठित जैन न्याय को परपक्ष के खण्डनपूर्वक उत्तरोत्तर रूप में स्थापित किया है। सिद्धसेन से लेकर अब तक अनेक प्रमाण-शास्त्रीय ग्रंथों एवं टीकाओं का निर्माण हो चुका है, उनमें न्यायावतार, लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय, प्रमाण-परीक्षा, प्राकृत-साहित्य में उपलब्ध जैन न्याय के बीज १२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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