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________________ कोई ज्ञानोपलब्धि हो गई हो । कहीं ऐसा न हो कि ये मेरी कपटपूर्ण घटना के पट उघाड़ दें। अत: पहले इसका इंतजाम करना चाहिये कि राजा मुनि के नजदीक जाये ही नहीं। महामात्य रात्रि के प्रथम प्रहर में अचानक राजा से मिलने आया और कहा—महाराज ! एक चिन्ताजनक स्थिति के सम्बन्ध में कुछ निवेदन करना चाहता हूं। असमय में महामात्य के आगमन से ही राजा सशंक हो उठा था। उसने कहा-शीघ्र कहो ! महामंत्री ने कहा—मुझे कुछ गुप्तचरों से पता लगा है कि आपके पिता यवराजर्षि मुनिधर्म से विचलित हो गये हैं। वे पुन: अपना राज्य अधिकृत करना चाहते हैं। इसीलिए वे अकेले यवपुर आये हैं तथा नगर के बाहर ठहरे हैं । आप सावधान रहें, कहीं आपके लिए कोई खतरा पैदा न हो जाये । राजा के आश्चर्य का पार नहीं रहा । साथ-साथ थोड़ा दुःख भी हुआ कि उत्कृष्ट त्याग-वैराग्य से संयम स्वीकारने वाले पिता संयम मार्ग से चलित हो रहे हैं। यद्यपि बात पर विश्वास नहीं होता, फिर भी अकस्मात् अकेले यवपुर आने का क्या प्रयोजन हो सकता है ! राजा ने मंत्री को आश्वस्त करते हुए कहा-आप चिन्ता न करें, मैं रहस्य का पता लगाने का पूरा प्रयत्न करूंगा। दीर्घपृष्ठ चला गया परन्तु राजा की आंखों से नींद गायब हो गई। विचारों का मन्थन चलने लगा। आखिर अकेला राजा हाथमें खड्ग लेकर नगर के बाहर स्थित कुम्हार की कुटिया के पास पहुंचा । सीधे मुनि के पास न पहुंचकर गर्दभिल्ल बेचैनी से कुटिया के बाहर चक्कर लगाने लगा। उसी समय मुनि ने पुनरावर्तन हेतु प्रथम गाथा का सस्वर पारायण किया - __ “ओहावसि पहावसि, ममं चेव निरक्खसि । लक्खिओ ते अभिप्पाओ, जवं पेच्छसि गद्दहा।" गाथा सुनकर राजा के पांव ठिठक गये । गाथा उस पर पूर्णतया घटित हो रही थी। वहां किसान ने गधे को सम्बोधित कर गाथा का उच्चारण किया था, यहां राजा का नाम गर्दभिल्ल था । उधर यवों का खेत था, इधर स्वयं राजर्षि यव थे । अत: गाथा का तात्पर्य यहां भी इस प्रकार घटित होता था कि गर्दभिल्ल ! तू कभी इधर देख रहा है, कभी उधर, परन्तु तू मुझे ही देख रहा है, तेरा अभिप्राय मैंने समझ लिया है। राजा विचार करने लगा कि मुनिवर्य तो अन्तर्ज्ञानी हैं । अन्धकार पूर्ण रात्रि में कुटियाके भीतर इन्हें कैसे पता चला कि मैं इनको देखने ही यहां आया हूं । यदि मेरी खोई हुई बहिन का कुछ पता ये बतला दें तो मैं समझंगा कि ये विशिष्ट ज्ञान के धारक हैं और मेरी इनके प्रति जो धारणा बनी है, वह सर्वथा निर्मूल है। इधर राजा ने सहज भाव से यह चिन्तन किया, उधर संयोगवश यव राजर्षि ने दूसरी गाथा ५६ श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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