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________________ ८५ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ यदि अक्षुण्ण रख सके परम पूज्य प्रातःस्मरणीय आचार्य श्री के प्रशस्त मार्ग को हम अक्षुण्ण रख सकें यही सच्ची गुरुभक्ति है । जिनधर्म की और जिनवाणी की सेवा है । हार्दिक कामना है कि वह सावधानता का सामर्थ्य बना रहे । आचार्य श्री के चरणों में त्रिकाल नमोस्तु ३ । मुनि वासुपूज्य (प. पू. १०८ आचार्य महावीरकीर्तिजी महाराजजी के शिष्य । त्यागपरंपरा के प्रर्वतक पूज्य श्री १०८ आचार्य शांतिसागरजी महाराज जब संघ सहित चौरासी मथुरा में पधारे थे तब सर्व प्रथम मैंने उनके दर्शन किये थे । उस प्रथम दर्शन से ही मेरे हृदय में वैराग्य उत्पन्न हो गया। तदनन्तर जयपूर के चातुर्मास में चार माह तक संपर्क में रहने से मेरा वैराग्य भाव और भी सुदृढ हो गया । आज दिगम्बर समाज में करीब १०० मुनि अनेक आर्यिकाएँ तथा ब्रह्मचारी गण है यह सब उन्हीं का प्रभाव है। उन्हीं की कृपा से सर्वत्र मुनियों का निर्विरोध विहार होता है। उन पूज्य आचार्य श्री के चरणों में मेरी नम्र श्रद्धांजलि हैं। चातुर्मासयोग, वर्णीभवन, सागर मुनि जयसागर साधकोत्तम पू. १०८ आचार्थ श्री के विषय में जितना भी कहा जाय थोडा है। उनकी साधना अपूर्व रही है । वे साधकोत्तम थे । दृष्टि संपन्न थे। निरतिचार चरित्र पालना में सदा ही सावधान थे। उनकी पवित्र आत्मा को सविनय नमोस्तु मुनि अरहसागर वंदो में जिनवीरको-सब विधि मंगलकार । श्री शांतिसागर-भवि जीवन सुखकार । श्रद्धावनत मुनि सुधर्मसागर चौमासा खानिया, जयपूर. शिष्य श्री आचार्य १०८ महावीर कीर्तिजी महाराज पू. आचार्य श्री के सहजोद्गार संस्मरणीय होते थे। 'हमें अपनी आत्मा के सिवाय पर पदार्थ की कोई चिन्ता नहीं हैं । हम तो हनुमानजी जैसे हैं । जिन का मंदिर गांव के बाहर होता है। गांव के जलने से हनुमानजी का क्या बिघडता हैं। संसार का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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