SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ को यदि फांसी हो तो उसे हुतात्मता कहना यहां तक ही लौकिक दृष्टि की पहुंच हो सकती है। इससे भी बढकर साधक की समाधि हो सकती है इसका इनको क्या पता ? धर्म और अहिंसा जैसी पवित्र-पवित्रतम वस्तुओं की वर्षों से समय असमय में बराबर खाल उतारी जाती है वहां सल्लेखना और समाधि जैसी अत्यंत पवित्र लोकोतम 'व्रतशिरोरत्न' की जो छानबीन की चेष्टा ज्ञानी कहे जाने अज्ञानीयों के द्वारा हुई उसका क्या हिसाब ? पवित्रता की विटंबना ही मानो इस युग की विशेषता रही हो !! जिसके पास सच्चा मापतोल ही नहीं। सूखी लकडीयों के साथ गीली को और कोयले को ही तोलने का तराजु हो वह क्या उनसे रत्नों का और जवाहरात का माप तोल कर सकता है ? धर्मकाटा कोई अलग वस्तु होती है ! यही बात सच्ची है। महाराजश्री की शांत स्वात्मनिर्भरता यथापूर्व हाथी के चाल से कदमकदम पर आगे के लिए बढती ही जा रही थी । दिनांक २२-८ को महाराजश्री के संकेत से ही श्रीमान् सेठ वालचन्द देवचंद शहा का ताम्रपट तथा ग्रंथमालों से की गयी श्रुतसेवा के लिए सभासंयोजना पूर्व सत्कार किया गया और मानपत्र समर्पण किया गया। स्वयं महाराजश्री आशीर्वाद देने के लिए उपस्थित हुए। आचार्य महाराज का अंतिम शब्दांकित प्रवचन दिनांक ८-९-५५ को योगायोग से टेपरेकॉर्ड का प्रबंध हो सका। वह उपवास का २५ वां दिन था। फिर भी महाराज २२ मिनिट धारावाही बोले । बोले क्या ? रत्नत्रय धर्म का पूरा आविष्कार था ! सचेत जीवन की सचेतन कमाई का भव्यों के लिए समर्पण था ! कहना होगा 'खात् पतिता नो रत्नवृष्टि: ।' आकाश से रत्नवर्षा के समानही वह प्रेरणादायी अमृतवृष्टि रही । जो जितना ग्रहण कर लेवे । कहना होगा। जैन समाज के पास प्रभावना के साधन हो सकते है परंतु वह समय पर उनका उपयोग करने में सावधानी नहीं रख पा रहा है। महाराजश्री के मुख से निकल गया 'फार उशीर झाला !" टेपरेकॉर्ड के लिए बहुत देरी हो गयी। अस्तु । महाराजश्री के उपदेश का कुछ भागांश स्वतंत्ररूप से मुद्रित है। जहाँ शास्त्रों में 'संयमबिन घडीयमइक्कजाहु' 'संयम के बिना मेरी एक घडी भी न जावे' इस प्रकार की आत्मप्रेरणा रही, प्रशस्त संकेत रहा। फिर भी छोटा बच्चा जैसा आग से डरता है, भागता है ठीक उसी तरह से अज्ञानी संयम से डरता है महाराजश्री का वह न रहा; 'संयम से मत डरो' दृष्टि यदि सम्यग्दृष्टि है, ज्ञान यदि सम्यग्ज्ञान है, भीतर से मुमुक्षु वृत्ति जगी हुई है तो संयम से घबडाने का कोई कारण नहीं। संयम कोई अलग से वस्तु नहीं जिस दृष्टि से मोक्षमार्ग पाया है, जिस ज्ञानानन्द का रसास्वाद यह जीव ले रहा है उसीकी स्थिर प्रवृत्ति कालविशेष के लिए बन जाना यही संयम है। संयम के नाम से भी उसीको चीड हो सकती है जिसने केवल कर्मकाण्ड के रूप में संयम को देख पाया । राग मात्र था राग का विकल्प मात्र भी बन्ध का या संसार का कारण होता है और वह सर्वथा हेय होता है। परमार्थभूत ज्ञानशून्य अज्ञानियों का व्रत-तप यह सुतराम् बालतप या बालवत होता है । परमार्थभूत ज्ञान का अनुभवनमात्र सामायिक होता है। बुद्धिपूर्वक होनेवाले केवल स्थूल कषायों के हट जाने मात्र से संभवनीय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy