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________________ जीवनपरिचय तथा कार्य मृगमीनसज्जनानां तृणजल-संतोष-विहितवृत्तीनाम् । लुन्धक-धीवर-पिशुना निष्कारण वैरिणो जगति ॥ घासपत्तीपर अपना गुजारा करनेवाले हीरन, जल में अपना निर्वाह करनेवाली मछलियाँ और संतोषामृत का पान करनेवाले साधु पुरुषों का भी शिकारी मछलीमार और दुर्जन व्यर्थही शत्रुता करते हैं। यह सनातन दुष्टता की परंपरा संसार में चली ही आ रही है। इसका प्रत्यंतर राजाखेडा में आया । छिद्दीलाल ब्राह्मण के नेतृत्व में आक्रमण की तैयारी हो गयी थी। संघ का हत्याकाण्ड होने को ही था कि महाराज को अंतरंग सच्छता से अंतर्ज्ञान द्वारा जो कुछ भी संकेत मिला हो उन्होंने संघस्थ त्यागियों से प्रतिदिन की अपेक्षा शीघ्र आहार करके लौटने को कहा। तदनुसार समस्त त्यागीचर्या करके ९ बजे के भीतर ही मंदिरजी में वापिस लौट आये । आक्रमक नारे लगाते हुए मंदिरजी की ओर बढे । जैनियों ने इस प्राणांतिक आक्रमण का प्रतिकार भी किया । स्टेट की ओर से पुलिस सहायता भी दौडी हुई आयी। पुलिस दलने आक्रमकों को गिरफ्तार कर लिया। लेकिन महाराजजी ने करुणाविमल भाव प्रदर्शित कर उनको छोड देने के लिये पुलिस अधिकारी मंडल को बाध्य किया। साधु की क्षमाशीलता और समता तत्त्वज्ञान मूलक होती है। प्राणांतिक आघात करनेवालों के ऊपर भी तनिक प्रत्याघात का विकल्प भी नहीं आया। 'सत्त्वेषु मैत्री' और ' माध्यस्थ-भावं विपरीतवृत्तौ' का नित्यपाठ इस रूप में मूर्तिमान् खडा हो गया । फलतः प्रतिपक्षी आघाती के दिल पर भी इन भव्य भावों का असर हुआ। विकारों का विचारों में कायाकल्प होगया । वातावरण बदल गया। हालां कि अधिकारी वर्ग स्वयं गुनहदार को छोड़ने के लिए तैयार नहीं था। आचार्यश्री ने तत्त्वज्ञान और व्यवहार का ऐसा सुमेल बिठाया कि वह अवाक् हो गया । आचार्यश्री के संकेतानुसार वे छोड दिये गये । दिव्य क्षमावृत्ति का एक जीता जागता प्रभावशाली आदर्श जनता के सम्मुख उपस्थित हुआ । सज्जनों की कोमलता, सरलता और शुद्धता साधु का धन होता है। आचार्य शांतिसागर इस सचेतन धन के माने हुए धनी थे । उत्तर प्रदेश में आग्रा, मथुरा, दिल्ली इत्यादि शहरों में विहार करते करते संघ राजस्थान में जैनपुरी जयपुर आया । उस के बाद वह ब्यावर आया । एक ऐतिहासिक चातुर्मास ब्यावर का चातुर्मास एक सांस्कृतिक इतिहास का सुवर्णपत्र हो सकता है। आचार्यश्री १०८ शांतिसागरजी छाणीवालों का भी चातुर्मास योगायोग से ब्यावर में हुआ। दोनों संघों का एकत्र रहना यह विशेषता थी। छाणीवाले महाराज की परंपरा तेरा पंथ की थी जब कि आचार्य महाराज की परंपरा वीस पंथकी थी। फिर भी दोनों में परस्पर पूरा मेल रहा। छाणीवाले महाराज आचार्यश्री का वैयावृत्य भक्ति भाव से बराबर करते रहे और आचार्यश्री ने भी उनके सम्मान की पूरी रक्षा की। जहाँ पर जिस प्रकार के व्यवहार का चलन हो उस प्रकार की प्रवृत्ति चलनी देनी चाहिए उसमें अन्य परंपरा वालों ने किसी मात्रा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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