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________________ २९२ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ (दृष्टान्तेन स्थिरा मतिः) दृष्टान्त, चरित्र पठन-पाठन करने से धर्म में बुद्धि स्थिर-दृढ होती है । सम्यग्दर्शन होने पर ही जो दुरभिनिवेश पूर्वक ज्ञान और चारित्र मिथ्या या वही दुरभिनिवेश रहित होने से सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र कहा जाता है। ज्ञान-दर्शन-चारित्र इन तीनों की एकता-अविनाभाव युगपत् रहता है। वे तीनों यदि मिथ्या दर्शन से सहित हो तो तीनों मिथ्या हैं और यदि सम्यग्दर्शन से सहित हो तो तीनों सम्यक् हैं । आचार्य कुंदकुंददेव ने भी अष्टपाहुड में चारित्र के दो भेद किये हैं। १ सम्यक्त्वचरण, २ चारित्रचरण । बृहद्र्व्य संग्रह में भी शुद्धोपयोग के दो भेद किये हैं । १ भावनारूप, २ उपयोगरूप । १. भावनारूप शुद्धोपयोग ही सम्यक्त्वचरण चारित्र या लब्धिरूप स्वरूपाचरण चारित्र सम्यक्त्व का अविनाभावि होने से गुणस्थान ४ से शुरू होता है इसलिये निश्चय मोक्ष मार्ग का प्रारंभ सम्यग्दर्शन की प्राप्ति से ही होता है। उपयोगरूप शुद्धोपयोगरूप निश्चय चारित्र का प्रारंभ गुणस्थान ७ से होकर पूर्णता गुणस्थान १४ के अंत समय में होती है। गुणस्थान १४ के अंत समय की रत्नत्रय की पूर्णता व्यवहार से कारण मोक्षमार्ग कहलाती है और उत्तर समय की सिद्ध अवस्था मोक्षकार्य कहलाती है। पूर्वपर्याय उपादान और उत्तर पर्याय उपादेय होने से पूर्वोत्तर समय में कार्य-कारणभाव भेददृष्टि से व्यवहारनय से कहा जाता है। वास्तव में अभेद दृष्टि से निश्चय से कार्य-कारण एक ही समय में होते हैं । न्यायशास्त्र में कार्योत्पादः क्षयो हेतोः' कारण का क्षय ही कार्य का उत्पाद है । कारण का क्षय ही कार्य का कारण है वही कार्य है। कार्य-कारण अभेद होने से एक समय में ही होते हैं । ज्ञान के दृढ निर्णय को ही श्रद्धा या सम्यग्दर्शन कहते हैं। ज्ञान की ज्ञान में वृत्ति, आत्मा का आत्मा में रमण ही चारित्र है । इसलिये ज्ञानमात्र आत्मा ही मोक्षमार्ग है और आत्मा ही साक्षात् मोक्ष है । रत्नत्रय धर्म की सिद्धि या आत्मा की सिद्धि ध्यान से होती है। ध्यान की सिद्धि के लिये ध्याता कैसा होना चाहिये, ध्यान किस प्रकार से करना चाहिये, और ध्यान किसका करना चाहिये इसका विवरण इस ग्रंथ में किया है। ध्यान से ही मुक्ति की प्राप्ति होती है। इसलिये ध्यान का अभ्यास करने की प्रेरणा की है। १. ध्याता का लक्षण-ध्यान की सिद्धि के लिए चित्त की स्थिरता आवश्यक है। चित्त की स्थिरता के लिए चित्त की अस्थिरता का कारण जो राग, द्वेष, मोह उसका त्याग आवश्यक है। वही ध्याता ध्यान की सिद्धि कर सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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