SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 488
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य श्रीमान् नेमिचंद्र व बृहद्रव्यसंग्रह २८३ मालव देश के 'धारा' नामक नगरी में 'राजा भोज' राज्य करता था। उसके राज्यमंडल में राजा श्रीपाल का भांडागार अधिकारी 'सोम' नामक राजश्रेष्ठी रहता था। उसके नियोमवश श्री मुनिसुव्रत भगवान के जिन मंदिर में आचार्य नेमिचंद्र ने इस ग्रन्थ की रचना की। ३. ग्रन्थ विषय-परिचय इस ग्रन्थ के प्रामुख्य से तीन अधिकार हैं। १. प्रथम अधिकार में-(गाथा १ से २७ तक) जीव द्रव्य का ९ अधिकारों में संक्षिप्त वर्णन करके पुद्गल द्रव्यादि पांच अजीव द्रव्यों का, पांच अस्तिकायों का वर्णन है। २. द्वितीय अधिकार में—(गाथा २८ ते ३८ तक) जीव-अजीव आदि ७ तत्त्व और ९ पदार्थों का संक्षिप्त वर्णन किया है । ३. तृतीय अधिकार में—(गाथा ३९ से ५८ तक) व्यवहार मोक्ष मार्ग व निश्चय मोक्ष मार्ग का स्वरूप बतलाकर मोक्षसिद्धि के लिये ध्यान की आवश्यकता बतलाकर ध्यान करनेवाला कौन हो सकता है, ध्यान किन मंत्रों से करना चाहिये, ध्यान किस का करना चाहिये, ध्यान सिद्धि का उपाय क्या है इसका विशद विवरण किया है । अन्त में अन्तिम निवेदन कर ग्रन्थ की समाप्ति की है। ४. ग्रंथ की कथनशैली ग्रन्थकारने प्रत्येक विषय का वर्णन इस ग्रन्थ में अनेकांत पद्धति से उभय नयों द्वारा किया है। व्यवहार नय से वर्तमान में जीव की कर्मोदय निमित्तवश क्या-क्या अवस्था होती है, जीव कितने प्रकार से व्यवहार में जाना जाता है उसका वर्णन किया है। इस व्यवहार नय का मुख्य अभिप्राय यह है कि यह व्यवहार नय से जो जीव का गुणस्थान-मार्गणास्थान-जीव समास रूप से कथन किया है वह वर्तमान में जीव की क्या-क्या अवस्था हो रही है इसका सामान्य जनों को ज्ञान होने के लिये व्यवहार भाषा से यह जीव का वर्णन किया है ऐसा अभिप्राय समझना। यह व्यवहार कथन जीव के स्वभाव का स्वरूप का कथन नहीं है, उसके बहिरंग बाह्यरूप का कथन है। उसके विना व्यवहारी जनों को जीव का बोध कराने का दूसरा उपाय नहीं है इसलिये व्यवहार नय से व्यवहारी जन भाषा से जीव का कथन किया गया है। जिस प्रकार व्यवहार में व्यवहार चलन के लिये प्रयोजनवश ‘घीका घडा' ऐसा शब्द प्रयोग करना पडता है और व्यवहारी जन समझ लेते हैं कि घडा घीका नहीं है । घडा तो मिट्टी का ही है। घडे में घी रखा है। इसलिये व्यवहार में उपचार से ‘घी का घडा' बोला जाता है। बोलने में घी का घडा' ऐसा शब्द प्रयोग बोल कर भी उसका ठीक अभिप्राय सब बालगोपाल समझ लेते हैं। उसी प्रकार आचार्यदेव ने जीव का बोध कराने के लिये गुणस्थान-मार्गणास्थान-जीवसमास भेद से यद्यपि जीव का कथन व्यवहारनय से किया है तो भी वह केवल उपचार ही समझना। कथनमात्र उसका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy