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________________ स्वामि क्रार्तिकेयानुप्रेक्षा की विशेषता २७७ सुखी होते हैं । पाप पुण्य दोनों के उदय से मानवता प्राप्त होती है । संसारी जीव को जो छोटा बडा शरीर प्राप्त होगा उसके अनुसार वह अपने प्रदेश संकुचित या विस्तृत करके उसमें रहता है, शरीर नाम कर्म से उसको स्वभाव प्राप्त हुआ है। जब जीव को केवल ज्ञान प्राप्त होता है तब वह सर्व त्रैलोक्य को तथा त्रिकालवर्ती वस्तुओं को उनके गुणपर्यायों के साथ जानता है अतः जीव को ज्ञान की दृष्टी से लोकालोक व्यापक कहना योग्य है। ज्ञान गुण है तथा जीव गुणी है। वह ज्ञान जीव से सर्वथा यदि भिन्न होता तो जीव गुणी तथा ज्ञान गुण है ऐसा जो गुणगुणि संबंध माना जाता है वह नष्ट हो जाता, अतः आत्मा से ज्ञान सर्वथा भिन्न नहीं है। जीव तथा उसका ज्ञान अन्योन्य से कालत्रय में भी नहीं होते । उनको अन्योन्य से भिन्न करना शक्य नहीं है। जीव कर्ता है वह काललब्धि से संसार तथा मोक्ष को प्राप्त करता है। जीव भोक्ता है क्यों कि पाप और पुण्य का फल सुख दुःखों को भोगता है । तीव्र कषाय परिणत जीव पापी होता है। और कषायों को शान्त करनेवाला जीव पुण्यवान होता है । रत्नत्रय युक्त जीव उत्तमतार्थ है। वह रत्नत्रय रूप दिव्य नौका से संसार समुद्र में से उत्तीर्ण होता है। लोकाकाश में जीव के समान पुद्गलादिक पांच पदार्थ हैं तो भी जीव की मुख्यता है । अन्य पदार्थ अचेतन होने से वे अपना स्वरूप नहीं जानते। जीव मात्र स्वपर पदार्थ का ज्ञाता है अतः वह लोक का विचार करके तत्त्वज्ञान की प्राप्ति से ध्यानादिक से कर्मक्षय कर लोक के अग्रभाग में अशरीर सिद्ध परमात्मा होकर सदा विराजमान होता है । अतः इस लोकानुप्रेक्षा के चिन्तन की आवश्यकता है । एवं लोयसहावं जो झायदि उकसमेक्कसम्भावो। सो खविय कम्मपुंजं तस्सेव सिहामणी होदि ॥ ज्याचे कषाय शान्त झाले आहेत व त्यामुळे जो शुद्धबुद्ध रूपाने परिणत झाला आहे अर्थात लोक स्वभाव जाणून ज्ञानावरणादि कर्माचा पुंज ज्याने नष्ट केला आहे तो त्रैलोक्याचा शिखामणि होतो. अर्थात लोक स्वभावाच्या ध्यानाने द्रव्यकर्म, भावकर्म आणि नोकर्म यांच्या समूहाचा नाश करितो व त्रैलोक्याच्या शिखरावर तनुवात वलयाच्या मध्ये चडामणि प्रमाणे होतो. अर्थात सम्यक्त्वादि आठ गुणांनी युक्त सिद्ध परमेष्ठी होतो. ११. बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा ____ इस जीवको बोधि-रत्नत्रय की प्राप्ति होना दुर्लभ, अतिशय कठिण है ऐसा चिन्तन करना-भावना करना उसे बोधि-दुर्लभानुप्रेक्षा कहते हैं । सम्यग्दर्शन, सम्मग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र ये तीन आत्मगुण रत्नत्रय कहे जाते हैं । रत्न जैसा अमूल्य होता है वैसे ये सम्यग्दर्शनादिक अमूल्य कष्ट से प्राप्त होते हैं। सम्यग्दर्शन जीवादिक सप्त तत्त्वोंपर श्रद्धा करना यह निःशंकित, निष्काङ्कित, निर्विचिकित्सा आदिक आठ अंगोसहित प्राप्त होना दुर्लभ है। इसको व्यवहार सम्यग्दर्शन कहते हैं। और 'स्वात्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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