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________________ स्वामि कार्तिकेयानुप्रेक्षा की विशेषता २७१ ग्रन्थ का प्रतिपाद्य विषय अनुप्रक्षा शब्द की व्याख्या इस प्रकार है-" अनु-पुनः पुनः प्रेक्षणं चिन्तनं स्मरणं अनित्यादि स्वरूपाणाम् इति अनुप्रेक्षा निज निजनामानुसारेण तत्त्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षा इत्यर्थः ॥" शरीर, धन, वैभव आदि पदार्थों के अनित्यादि स्वभावों का बार बार चिन्तन, मनन, स्मरण करना यह अनुप्रेक्षा शब्द का अर्थ है । अर्थात धनादि पदार्थ अनित्य है इनसे जीव का हित नहीं होता है इत्यादि रूपसे जो चिन्तन करना उसे अनुप्रेक्षा कहते हैं भावना ऐसा भी इनका दूसरा नाम है। इनके बारह भेद है १. अध्रुव, २ अशरण, ३ संसार, ४ एकत्व, ५ अन्यत्व, ६ अशुचित्व, ७ आस्रव, ८ संवर, ९ निर्जरा, १० लोक, ११ दुर्लभ और १२ धर्म । १. अध्रुवानुप्रेक्षा जो-जो पदार्थ उत्पन्न होता है वह चिरस्थायी नहीं है। जन्म मरण के साथ अविनाभावी है। पदार्थों में सतत परिणति होती ही है। परिणतिरहित पदार्थ दुनिया में कोई भी नहीं है। यदि जीव को तारुण्य प्राप्त हुआ तो भी वह अक्षय नहीं है। कालान्तर से वह जीव वृद्ध होकर कालवश होता है। धनधान्यादि लक्ष्मी मेघच्छाया के समान शीघ्र विनाश को प्राप्त होती है । पुण्योदय से ऐश्वर्य लाभ होता है परन्तु वह समाप्त होनेपर ऐश्वर्य नष्ट होता है। अनेक राज्यैश्वर्य नष्ट हुए हैं। सत्पुरुषों के मन में ऐश्वर्य नित्य नहीं रहेगा ऐसा विचार आता है तथा वे उसका उपयोग धर्म कार्य में करते हैं अर्थात वे जिनमंदिर, जिनप्रतिष्ठा, जिनबिम्ब तथा सुतीर्थ यात्रा में उसका व्यय करते हैं जो साधार्मिक बांधव हैं उनकी आपत्ति को दूर करके उनको प्रत्युपकार की अपेक्षा न करते हुए धन देकर धर्म में प्रवृत्त करते हैं, उनकी लक्ष्मी सफल होती है। सम्यग्दृष्टि, अणुव्रती, महाव्रती आदिकों की रत्नत्रय वृद्धि करने के लिए आहार औषधादि दान देने से आत्महित होता है तथा संपत्ति की प्राप्ति होना सफल होता है । इन्द्रियों के विषय विनश्वर है ऐसा निश्चय कर उनके ऊपर मोहित जो नहीं होता है वह सज्जन अपना कल्याण करता है । बालक जैसा स्तनपान करते समय अपना दूसरा हाथ माता के दूसरे स्तनपर रखता है वैसे मनुष्य जो उसको वैभव प्राप्त हुआ है उसका उपभोग लेते हुए भावी आत्महित के लिये धर्म कार्य में भी उसका अवश्य व्यय करे। धन में लुब्ध न होते हुए निर्मोह होकर उसका व्यय करने से भवान्तर में भी वह लक्ष्मी साथ आती है। २. अशरणानुप्रेक्षा मनुष्य शब्द की सिद्धि मनु धातु से हुई है। विचार करना विवेकयुक्त प्रवृत्ति करना यह मनु धातु का अर्थ है । संसार, शरीर, और भागों से विरत होकर सज्जन ऐसा विचार करते हैं “ इस जगत् में इन्द्रादिक देव सामर्थ्यशाली होकर भी मृत्यु से अपना रक्षण करने में असमर्थ हैं। आयुष्य का क्षय होने से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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