SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 462
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पं. आशाधरजी और उनका सागारधर्मामृत २५७ पंडितजी संस्कृत तथा प्राकृत भाषा के अच्छे अद्वितीय जानकार थे। उन्होंने जैन ग्रंथों के साथ अजैन ग्रन्थों का काव्य, अलंकार, न्याय, व्याकरणादिक का सखोल अध्ययन किया था। धर्मशास्त्र के साथ वैद्यक, योगशास्त्र आदि विविध विषयों पर उनका अधिकार जमा था । इसही कारण उनके ग्रन्थों में सर्वत्र यथास्थान सभी शास्त्रों के प्रचुर उद्धरण तथा सुभाषित देखने में आते है। अष्टांगहृदय, काव्यालंकार, अमरकोश जैसे ग्रन्थोंपर वे टीका लिखने के लिए उद्यत हुए। मालवनरेश अर्जुनवर्मा, राजगुरु बालसरस्वती महाकवि मदन जैसे अजैनों ने भी उनकी विद्वत्ता का समादर करते हुए उनके निकट काव्यशास्त्र का अध्ययन किया । तथा विन्ध्यवर्मा के सन्धिविग्रहमंत्री कवीश बिल्हण भी उनकी मुक्तकंठ से प्रशंसा करते हैं । उनके उपलब्ध साहित्य में (१) प्रमेयरत्नाकर, (२) भरतेश्वराभ्युदय, (३) राजीमती विप्रलंभ, (४) अध्यात्मरहस्य ( योगाभ्यास का सुगम ग्रन्थ) (५) भगवती मूलाराधना टीका, (६) इष्टोपदेश टीका, (७) भुपालचतुर्विंशति टीका, (८) आराधनासार टीका, (९) अमरकोश टीका, (१०) काव्यालंकार टीका, (११) सहस्रनामस्तवन टीका, (१२) जिनयज्ञकल्प (सटीक) (१३) त्रिषष्टि स्मृतिशास्त्र सटीक, (१४) नित्य महोद्योत, (१५) रत्नत्रयविधान, (१६) अष्टांग हृदयद्योतिनी टीका आदि ग्रंथ उपलब्ध हैं। उनके ग्रन्थ के अवलोकन से जैन तत्त्वज्ञान पर उनका असाधारण प्रभुत्व का पता चलता है। प्रथमानुयोग की कथाभांडार का उनका अवगाह का पता अकेले धर्मामृत ग्रन्थ में जो दृष्टान्त उन्होंने सामने रखे उसपर से ही सहज ही लगता है। उनकी विद्वत्ता का गृहस्थजनों में ही नहीं बल्की मुनीजनों में भी समादर था । तत्कालीन पीठाधीश भट्टारकोंने तथा मुनियोंने भी उनके समीप अध्ययन करने में कोई संकोच नहीं किया। इतना ही नहीं उदयसेन मुनिने 'नयविश्वचक्षु' तथा मदनकीर्ति यतिपतिने “प्रज्ञापुंज" कहकर अभिनंदित किया। उन्होंने वादीन्द्र विशालकीर्ति को न्यायशास्त्र तथा भट्टारक विनयचंद्र को धर्मशास्त्र पढाया था । इससे यह सिद्ध होता है की वे अपने समय के अद्वितीय विद्वान थे। इसतरह विद्याकी अपेक्षा उनका स्थान ऊँचा होकर भी चारित्रधारी श्रेष्ठ श्रावक तथा मुनियों की प्रति उनकी श्रद्धा और आदर था। उनके समस्त उपलब्ध साहित्य में उनका 'धर्मामृत' ग्रन्थ अष्टपैलु हिरा जैसा प्रकाशमान है। मुमुक्षु जीव श्रमण तथा श्रमणोपासक-दूसरे शब्दों में सागर और अनगार दो तरह से विभक्त है। उनके लिए यह ग्रंथ अमृत का भाजन है। अनगार धर्मामृत में अनगार मुनि के चर्या का सुविस्तृत वर्णन आता है जो कि मूलाचार के गहन अध्ययन पर आधारित होकर भी अपना एक खास स्थान रखता है। यही कारण है कि आज तक अनगार-धर्मामृत मुनियों के लिए भी एक प्रमाणित ग्रंथ माना जाता है। धर्मामृत के दूसरे भागों में गृहस्थों के लिए धर्म का उपदेश है। इस ग्रंथ पर उन्होंने अपनी 'भन्यकुमुदचन्द्रिका' स्वोपज्ञ टीका लिखी है। अपने ग्रंथपर स्वयं ही टीका करने में उनका भाव उन्होंने सही प्रस्तुत किया है। टीका भी अपने ढंग की अनोखी और पांडित्यप्रचुर है तथा यत्रतत्रं नाना उद्धरणों से परिपुष्ट है। मुनिसुव्रत काव्य में अर्हद्दास ने लिखा है धावन्कापथसंभृते भववने सन्मार्गमेकं परम् । त्यक्त्वा श्रान्ततरश्चिराय कथमप्यासाद्य कालादमुम् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy