SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 452
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुरुषार्थ सिद्धयुपाय : एक अध्ययन २४७ है। आर्या ९ से १५ में पुरुष-पुरुषार्थ-पुरुषार्थसिद्धि और पुरुषार्थसिद्धयुपाय का स्वरूप क्रमशः स्पष्ट हुआ है । हमारा विवेकी जिज्ञासुओं को अनुरोधविशेष है कि वे इन प्रारंभिक १९ मूल श्लोकों का और पंडितजी के हिंदी अनुवाद का अक्षरश: मनन अवश्य करें। वह स्वयंपूर्ण है। चारित्र संबंधी संपूर्ण विकल्पों का सहजही परिहार हो जावेगा । चारित्र को किस दृष्टि से आंकना इसका परिज्ञान भी हो जावेगा। _ 'पुरुष' शब्द का अर्थ 'चिदात्मा' है वह स्पर्शादि से रहित है। अपने ज्ञानादि गुण पर्यायों से तन्मय है। द्रव्य का दूसरा लक्षण जो उत्पादव्यय ध्रौव्य का होना उससे वह समाहित है। चिदात्मा का चेतना लक्षण निर्दोष है । वह ज्ञान चेतना व दर्शन चेतनारूप से दो प्रकार की होकर भी परिणमन अपेक्षा से तीन प्रकार है। ज्ञान चेतना-शुद्ध ज्ञान स्वरूप परिणमन करती है । कर्म चेतना-रागादिरूप परिणमन करती है । कर्मफल चेतना-सुखदुःखादि भोगनेरूप परिणमन करती है । पुरुष का 'अर्थ' अर्थात् प्रयोजन सुख है फिर भी अनादिकाल से ज्ञानादि गुणों के सविकार-परिणमनरूप परिणमता हुआ यह जीव सविकार परिणामों का हि कर्ता-भोक्ता रहा है और का नहीं यह विपरीत पुरुषार्थ रहा। विकारों से रहित अचल ज्ञायकरूप चैतन्यरूपता को प्राप्त होना कृतकृत्यता है यही पुरुषार्थ-सिद्धि है। उपाय के परिज्ञान के लिए जीवस्वरूप-कर्मस्वरूप-परस्पर निमित्त नैमित्तिक संम्बध, स्वभाव-विभाव इत्यादि विषयक श्लोक १२, १३, १४, १५ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । साथही साथ समयसार कलश यः परिणमति स कर्ता यः परिणामो भवेत्तु तत् कर्म । या परिणति क्रिया सा त्रयमपि भिन्नं न वस्तुतया ॥ इसको साथ में रखकर कार्यकारण भाव और निमित्त नैमित्तिक भावसंबंधी संपूर्ण विकल्प जाल गल सकता है। पुद्गलों का कर्मरूपसे स्वयं परिणमन होता है। जीव के शुभाशुभ परिणाम केवल निमित्त मात्र होते हैं। इसही प्रकार जीव अपने-चिदात्मक भावरूप से परिणमता है, पुद्गल कर्म केवल निमित्त मात्र होता है, यह है वस्तुस्थिति । कर्म-निमित्तक भावों में तन्मयता का अनुभवन करना अज्ञान है और संसार का बीज है। रागादिभाव सचेतन है इसलिए इनका कर्ता जीव होते हुए भी स्वयं ग्रन्थकार उन्हें 'कर्मकृत' कहकर 'असमाहित' भी कह रहे है। आशय स्पष्ट है कि वे शुद्ध जीव स्वभावरूप नहीं है कर्म के निमित्त होते हुए होते है । अतएव 'कर्मकृत' कहे गये हैं। इनमें आत्मस्वरूप की कल्पना करना और उपादेयता की धारणा बनाना यह कोरा अज्ञान है। इस विपरीत मिथ्या अभिप्राय को जडमूल से दूर करना यह सम्यग्दर्शन है। कर्म निमित्तक भावों से भिन्न, अपने शुद्ध चैतन्यस्वरूप को यथावत् जानना-अनुभवना यह सम्यग्ज्ञान है। और कर्मनिमित्तक भावों से उदासीन होकर निजस्वरूप में स्थिर होना सम्यक्चारित्र है। रत्नत्रय स्वरूप तिनों का समुदाय यथार्थ में पुरुषार्थ सिद्धि का उपाय स्वयं सिद्ध होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy