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________________ जैन ज्योतिष साहित्य का सर्वेक्षण २३३ पणमिय पयारविंद तिलोचनाहस्स जगपईवस्स। बुच्छामि लोयविजयं जंतं जंतूण सिद्धिकयं ॥ जगत्पति–नाभिराय के पुत्र त्रिलोकनाथ ऋषभदेव के चरणकमलों में प्रणाम करके जीवों की सिद्धि के लिये लोकविजय यन्त्र का वर्णन करता हूँ। इसमें १४५ से आरम्भ कर १५३ तक ध्रुवांक बतलाए गए हैं। इन ध्रुवांकों पर से ही अपने स्थान के शुभाशुभ फल का प्रतिपादन किया गया है । कृषिशास्त्र की दृष्टि से भी यह ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण है। कालकाचार्य-यह भी निमित्त और ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान् थे। इन्होंने अपनी प्रतिभा से शककुल के साहि को स्ववश किया था तथा गर्द मिल्ल को दण्ड दिया था । जैन परम्परा में ज्योतिष के प्रवर्तकों में इनका मुख्य स्थान है, यदि यह आचार्य निमित्त और संहिता का निर्माण न करते, तो उत्तरवर्ती जैन लेखक ज्योतिष को पापश्रुत समझकर अछूता ही छोड देते । वराहमिहिर ने वृहज्जातक में कालकसंहिता का उल्लेख किया है।' निशीथ चूर्णि आवश्यक चूर्णि आदि ग्रन्थों से इनके ज्योतिष-ज्ञान का पता चलता है । ___ उमास्वाति ने अपने तत्त्वार्थसूत्र में जैन ज्योतिष के मूल सिद्धान्तों का निरूपण किया है । इनके मत से ग्रहों का केन्द्र सुमेरु पर्वत है, ग्रह नित्य गतिशील होते हुए मेरु की प्रदक्षिणा करते रहते हैं। चौथे अध्याय में ग्रह, नक्षत्र, प्रकीर्णक और तारों का भी वर्णन किया है। संक्षेप रूप में आई हुई इनकी चर्चाएँ ज्योतिष की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। इस प्रकार आदिकाल में अनेक ज्योतिष की रचनाएँ हुईं। स्वतंत्र ग्रन्थों के अतिरिक्त अन्य विषय धार्मिक ग्रन्थों, आगम ग्रन्थों की चूर्णियों, वृत्तियों, और भाष्यों में भी ज्योतिष की महत्त्वपूर्ण बातें अंकित की गयीं। तिलोय-पण्णत्ति में ज्योतिर्मण्डल का महत्त्वपूर्ण वर्णन आया है। ज्योतिर्लोकान्धकार में अयन, गमनमार्ग, नक्षत्र एवं दिनमान आदि का विस्तारपूर्वक विवेचन किया है। पूर्व मध्यकाल में गणित और फलित दोनों ही प्रकार के ज्योतिष का यथेष्ट विकास हुआ। इसमें ऋषिपुत्र, महावीराचार्य, चन्द्रसेन, श्रीधर प्रभृति ज्योतिर्विदों ने अपनी अमूल्य रचनाओं के द्वारा इस साहित्य की श्रीवृद्धि की। भद्रबाहु के नाम पर अर्हच्चडामणिसार नामक एक प्रश्नशास्त्र सम्बन्धी ६८ प्राकृत गाथाओं में रचना उपलब्ध है । यह रचना चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु की है, इसमें तो सन्देह है। हमें ऐसा लगता है कि यह भद्रबाहु वराहमिहिर के भाई थे, अतः संभव है कि इस कृति के लेखक यह द्वितीय भद्रबाहु ही होंगे। प्रारम्भ में वर्गों की संज्ञाएँ बतलायी गयी हैं। अ इ ए ओ, ये चार स्वर तथा क च ट त प य श ग ज ड द ब ल स, ये चौदह व्यंजन आलिंगित संज्ञक हैं। इनका सुभग, उत्तर और संकट नाम भी है। १. भारतीय ज्योतिष, पृ. २०७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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