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________________ तत्त्वार्थसार २१७ के (सामान्य से) वस्तुको ग्रहण करता है वह निराकार उपयोग कहलाता है। साकार उपयोग ज्ञान है और निराकार है दर्शन। ज्ञान मतिज्ञानादि के भेद से आठ प्रकार का और दर्शन चक्षु आदि के भेद से चार प्रकार का है। इसके पश्चात् यहां जीवोंके संसारी और मुक्त इन दो भेदों का निर्देश करके उनमें संसारी जीवों की प्ररूपणा सैद्धान्तिक पद्धति के अनुसार चौदह गुणस्थान, चौदह जीवस्थान (जीव समास ), छह पर्याप्तियों, दस प्राणों, आहारादि चार संज्ञाओं और चौदह मार्गणाओं के आश्रय से की गई है। आगे विग्रह गति का स्वरूप बतलाते हुए कहा गया है कि विग्रह का अर्थ शरीर होता है, पूर्व शरीर के छूटने पर नवीन शरीर की प्राप्ति के लिये जो गति होती है वह विग्रहगति कहलाती है। वह सामान्यरूप से दो प्रकार की है। सविग्रह मोड़सहित और अविग्रह-मोडरहित, वही विशेष रूप से इषुगति, पाणिमुक्ता, लांगलिका और गोमूत्रिका के भेद से चार प्रकार की है । इषुगति में मोड़ नहीं लेना पडता-वह बाणकी गति के समान सीधी आकाश प्रदेश पंक्ति के अनुसार होती है और उसमें एक समय लगता है। मुक्त होने वाले जीवों की नियमतः यही गति होती है। परन्तु अन्य (संसारी) जीवों में इसका नियम नहीं है—किन्ही के विग्रह रहित यह इषुगति होती है और किन्हीं के वह विग्रह-सहित भी होती है। दूसरी पाणिमुक्ता विग्रह गति में एक मोड़ लेना पडता है और उसमें दो समय लगते हैं। तिसरी लांगलिका गति में दो मोड लेने पडते हैं और उसमें तीन समय लगते हैं। चौथी गोमूत्रिका में तीन मोड़ लेने पडते हैं और चार समय उसमें लगते हैं। पाणिमुक्ता विग्रह गति में जीव अनाहारक-औदारिक आदि तीन शरीर और छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गल के ग्रहण से रहित-एक समय रहता है। लांगलिका में वह दो समय और गोमूत्रिका में तीन समय अनाहारक रहता है। उक्त विग्रहगति में जीव के औदारिक आदि सात काययोगों में एक कार्मण काययोग ही रहता है, जिसके आश्रय से वह वहाँ कर्म को ग्रहण किया करता है तथा नवीन शरीर को प्राप्त करता है। __ आगे तीन प्रकार के जन्म और नौ योनियों का निर्देश करते हुए यह स्पष्ट किया गया है कि किन जीवों के कौनसा जन्म और कौनसी योनियां होती हैं। पश्चात् विशेषरूप से चौरासी लाख (८४००००० ) योनियों में से किन जीवों के कितनी होती हैं, इसका भी उल्लेख कर दिया है। साथ ही यहां किन जीवों के कितने कुलभेद होते हैं, यह भी प्रगट कर दिया है। तत्पश्चात् चारों गतियों के जीवों के आयुप्रमाण को बतलाकर नारकी, मनुष्य और देवों के शरीर की ऊंचाई का निरूपण करते हुए एकेन्द्रियादि जीवों के शरीर की अवगाहना के प्रमाण का निर्देश किया गया है। __आगे गति-आगति की प्ररूपणा में कौन कौन से जीव मरकर किस किस नरक तक जा सकते है तथा सातवें व छठे आदि नरकों से निकले हुए जीव कौन कौनसी अवस्था को नहीं प्राप्त कर सकते हैं, इसका विवेचन किया गया है । सब अपर्याप्तक जीव, सूक्ष्म शरीरी, अग्निकायिक, वायुकायिक और असंज्ञी ये जीव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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