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________________ तत्त्वार्थसार बालचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री जैन आगम ग्रन्थों में तत्त्वार्थसूत्र का स्थान अतिशय महत्त्वपूर्ण है। वह ग्रन्थ प्रमाण से संक्षिप्त होने पर भी अर्थतः गम्भीर और विशाल है। उसके आश्रय से सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थ वार्तिक और श्लोक वार्तिक जैसे विस्तीर्ण टीका ग्रन्थों की रचना हुई है । प्रस्तुत तत्त्वार्थसार उसकी एक पद्यात्मक स्वतंत्र व्याख्या है। वह उसके सारभूत ही है, तत्त्वार्थ वार्तिक और श्लोक वार्तिक जैसी गम्भीर और विस्तीर्ण नहीं है। इसके कर्ता आचार्य अमृतचन्द्र हैं। उन्होंने ग्रन्थ के अन्त में “वर्ण पदों के कर्ता हैं, पदसमूह वाक्यों का कर्ता हैं, और वाक्य इस शास्त्र के कर्ता हैं, वस्तुतः हम इस के कर्ता नही हैं ।" यह कह कर जो आत्म कर्तृत्वका निषेध किया है वह उनकी निरभिमानता और महत्त्व का द्योतक है। साथ ही यह भी स्मरणीय है कि आचार्य अमृतचन्द्र अध्यात्म सन्त थे । भगवान् कुन्द-कुन्द विरचित प्रवचनसार, पंचास्तिकाय और संमयप्राभृत जैसे आध्यात्मिक ग्रन्थों पर उनके द्वारा निर्मित टीकाएं महत्त्वपूर्ण हैं । इस दृष्टि से भी उक्त तत्त्वार्थसार विषयक कर्तृत्व के अभिमान से अपने को पृथक् रखना उन जैसोंके लिये अस्वाभाविक नहीं है । इसके अतिरिक्त यह भी विशेष ध्यान देने योग्य है कि वे कण्टकाकीर्ण एकान्त पथ के पथिक नहीं थे, प्रत्युत अनेकान्त वाद के भक्त व उसके प्रबल समर्थक थे । यह उनके द्वारा विरचित पुरुषार्थसिद्धयुपाय से भलीभाँति ज्ञात होता है। कारण कि वहां उन्होंने मंगल स्वरूप परंज्योति (जिनेन्द्र की ज्ञान ज्योति ) के जयवन्त रहने की भावना को प्रदर्शित करते हुए अनेकान्त को नमस्कार किया है व उसे परमागम का बीज और समस्त एकान्तवादों का समन्वयात्मक बतलाया है। इसी प्रकार नाटक-समयसार-कलश के प्रारम्भ में भी उन्होंने अनेकान्तरूप मूर्ति के सदा प्रकाशमान रहने की भावना व्यक्त की है तथा अन्त में यही सूचित किया है कि यह समय (समयसार ) की व्याख्या अपनी शक्ति से वस्तुतत्त्व को व्यक्त करनेवाले शब्दों के द्वारा की गई है; स्वरूप में गुप्त अमृतचन्द्र सूरि का इसमें कुछ भी कर्तव्य (कार्य) नहीं है। उक्त अनेकान्त के समर्थन में वे इसी समयसारकलश में कहते हैं कि ' स्यात् ' पद से द्योतित-अनेकान्तस्वरूप-जिनवचननिश्चय और व्यवहार इन दोनों नयों के विरोध को नष्ट करनेवाले हैं। उन में अनेकान्तरूप जिनागम के विषय में जो निर्मोही (सम्यग्दृष्टि ) जन रमते हैं वे शीघ्र ही उस समयसारभूत परं ज्योति का अवलोकन करते हैं जो नयपक्ष से रहित है। इसीको और स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि यद्यपि प्राक् पदवी में—जब तक निश्चल दशा प्राप्त नहीं हुई है तबतक-व्यवहारनय व्यवहारी जनों को हाथ का सहारा देनेवाला है—निश्चय का साधक २१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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