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________________ चन्द्रप्रभचरितम् : एक परिशीलन १९९ शुभ स्वप्न - महारानी लक्ष्मणा सुखपूर्वक सो रही थीं, इतने में उन्हें रात्रि के अन्तिम प्रहर सोलह शुभ स्वप्न हुए । प्रभात होते ही वे अपने पति के पास पहुँचती हैं । स्वप्नफल – पत्नी के मुख से क्रमशः सभी स्वप्नों को सुनकर महासेन ने उनका शुभ फल जिसे सुनकर उन्हें अपार हर्ष हुआ । बतलाया, गर्भावतरण - आयु के समाप्त होते ही उक्त वैजयन्तेश्वर अपने विमान से चयकर प्रशस्त '[ चैत्र कृष्णा पञ्चमी के' ] दिन महारानी लक्ष्मणा के गर्भ में अवतरण करते हैं । गर्भकल्याणक महोत्सव — इसके पश्चात् इन्द्र महाराज महासेन के राजमहल में पहुँच कर गर्भकल्याणक महोत्सव मनाते हैं। माता के चरणों की अर्चना करके वे वहाँ से वापिस चले जाते हैं, पर श्री, ही और धृति देवियाँ वहीं रह कर उन (माता) की सेवा-शुश्रूषा करती हैं । जन्म - पौष कृष्णा एकादशी के दिन लक्ष्मणा सुन्दर पुत्र - चन्द्रप्रभ को जन्म देती है । इस शुभ वेला में दिशाएँ स्वच्छ हो जाती हैं; आकाश निर्मल हो जाता है; सुगन्धित मन्द वायुं का संचार होता है; दिव्य पुष्पों की वृष्टि होती है; कल्पवासी देवों के यहां मणिघण्टिकाएँ, ज्यौतिष्क देवों के यहां सिंहनाद, भवनवासी देवों के यहां शङ्ख और व्यन्तर देवों के यहां दुन्दुभि बाजे स्वयमेव बजने लगते हैंइन हेतुओं से तथा अपने आसन के कम्पन से इन्द्र चन्द्रप्रभ के जन्म को जानकर देवों के साथ चन्द्रपुरी की ओर प्रस्थान करते हैं । अभिषेक — इन्द्राणी माता के निकट मायामयी शिशु को सुलाकर वास्तविक शिशु को राजमहल से बाहर ले आती है। सौधर्मेन्द्र शिशु को दोनों हाथों में लेकर ऐरावत पर सवार होता है, और सभी देवों के साथ सुमेरु पर्वत की ओर प्रस्थान करता है । वहां पाण्डुक शिला पर शिशु को बैठाकर देवों के द्वारा लाये गये क्षीरसागर के जल से अभिषेक करता है, और विविध अलङ्कारों से अलङ्कृत कर के उनका 6 ( चन्द्रप्रभ ) की स्तुति 'चन्द्रप्रभ' नाम रख देता है । इसके उपरान्त सौधर्मेन्द्र अन्य इन्द्रों के साथ उन करता है, और फिर उन्हें माता के पास पहुँचा कर महासेन से अनुमति लेकर वापिस चला जाता है । - बाल्यकाल — शिशु अपनी अमृतलिप्त अड्गुलियों को चूस कर ही तृप्त रहता है, उसे माँके दूध की विशेष लिप्सा नहीं होती । चन्द्रकलाओं की भाँति शिशु का विकास होने लगता है। धीरे-धीरे वह देवकुमारों के साथ गेंद आदि लेकर क्रीडा करने योग्य हो जाता है । इसके पश्चात् वह तैरना, हाथी-घोडे पर सवारी करना आदि विविध कलाओं में प्रवीण हो जाता है । 1 १. यह मिति उ. पु. ( ५४. १६६ ) के आधार पर दी है, चं. च. में इस मिति का उल्लेख नहीं है । २. यही मिति उ. पु., हरिवंश एवं तिलोयप में अङ्कित है, त्रिषष्टिशलाकापु. ( २९७.३२ ) में पौष कृष्णा द्वादशी लिखी है, पर पुराणसा. ( ८४.४४ ) में केवल अनुराधा योग का ही उल्लेख मिलता है । ३. त्रिषष्टिशलाका पुरुष में भी स्तुति का उल्लेख है, पर उ. पु. ( ५४, १७४ ) में आनन्दनाटक का उल्लेख मिलता है, न कि स्तुति का । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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