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________________ अष्टसहस्री १६७ 'विद्यानन्द ने ' इस नाम का भी अपने ग्रन्थों में उपयोग किया है । इस तरह यह कृति जैन साहित्य में दोनों नामों से विश्रुत है । इस में आचार्य समन्तभद्र ने आप्त ( स्तुत्य ) कौन हो सकता है, उसमें आप्तत्व के लिये अनिवार्य गुण ( असाधारण विशेषताएँ) क्या होना चाहिए, इसकी युक्ति पुरस्सर मीमांसा (परीक्षा) की है और यह सिद्ध किया है कि पूर्ण निर्दोषता, सर्वज्ञता और युक्तिशास्त्राविरोधि वक्तृता ये तीन गुण आप्तत्व के लिये नितान्त वांछनीय और अनिवार्य हैं । अन्य वैभव शोभा मात्र है । अन्ततः ऐसा आप्तत्व उन्होंने वीरजिन में उपलब्ध कर उनकी स्तुति की तथा अन्यों ( एकान्तवादियों) के उपदेशों एकान्तवादों की समीक्षा 'पूर्वक उनके उपदेश - स्याद्वाद की संस्थापना की है । 3 इसे हम जब उस युग के सन्दर्भ में देखते हैं तो प्रतीत होता है कि वह युग ही इस प्रकार का था । इस काल में प्रत्येक सम्प्रदाय प्रवर्तक हमें अन्य देव तथा उसके मत की आलोचना और अपने इष्टदेव तथा उसके उपदेश की सिद्धि करता हुआ मिलता है। बौद्ध दर्शन के पिता कहे जाने वाले आचार्य दिग्नाग ने भी अन्य के इष्टदेव तथा उसके उपदेशों की आलोचना और अपने इष्ट बुद्धदेव तथा उनके उपदेश ( क्षणिकवाद ) की स्थापना करते हुए 'प्रमाणंसमुच्चय' में बुद्ध की स्तुति की है । इसी ! प्रमाणसमुच्चय' के समर्थन में धर्मकीर्ति ने 'पमाणवार्तिक' और प्रज्ञाकर ने ' पमाणवार्त्तिकालंकार नाम की व्याख्याएँ लिखी हैं। आश्चर्य नहीं कि समन्तभद्र ने ऐसी ही स्थिति में प्रस्तुत 'देवागम' की रचना की और उस पर अकलङ्कदेव ने धर्म कीर्ति की तरह 'देवागमभाष्य' (अष्टशती) तथा विद्यानन्द ने प्रज्ञाकर की भाँति 'देवागमालङ्कार' ( प्रस्तुत अष्टसहस्री) रचा है । 'देवागम' एक स्तव ही है, जिसे अकलङ्कदेव ने स्पष्ट शब्दों में ' भगवत्स्तव' कहा है । * इस प्रकार 'देवागम' कितनी महत्त्व की रचना है, यह सहज में अवगत हो जाता है । यथार्थ में यह इतना अर्थगर्भ और प्रभावक ग्रन्थ है कि उत्तर काल में इस पर अनेक आचार्यों ने भाष्य - व्याख्या-टिप्पण आदि लिखे हैं । अकलङ्कदेव की 'अष्टशती', विद्यानन्द की ' अष्टसहस्त्री ' और १. 'अष्ट स., पृ. १, मङ्गल पद्य, आप्तपरीक्षा, पृ. २३३, २६२ । २. दोषावरणयोर्हानिर्निश्शेषास्त्यति शायनात् । क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्म लक्षयः ॥ सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा । अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञ - संस्थितिः ॥ सत्त्वमेवासि निर्दोषो युक्ति - शास्त्राविरोधिवाक् । अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धेन न बाध्यते ॥ ....... इति स्याद्वादसंस्थितिः ॥ ' - देवागम का. ११३ । स्तवो भगवतां देवागमस्तत्कृतिः । ' - अष्ट श. मंग. प. २ । ३. ४. Jain Education International - देवागम का., ४, ५, ६ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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