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________________ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ २. प्रदेशबन्ध स्थानप्ररूपणा पहले जितने योगस्थान बतला आये हैं उतने प्रदेशबन्धस्थान होते हैं । इतनी विशेषता है कि योगस्थानों से प्रदेशबन्धस्थान प्रकृति विशेष की अपेक्षा विशेष अधिक होते हैं। खुलासा इस प्रकार है कि जघन्य योग से आठ कर्मोंका बन्ध करने वाले जीव के ज्ञानावरणीय कर्म का एक प्रदेश बन्धस्थान होता है । पुनः प्रक्षेप अधिक योगस्थान से बन्ध करने वाले जीव के ज्ञानावरणीय कर्म का दूसरा प्रदेशबन्धस्थान होता है । इसी प्रकार उत्कृष्ट योगस्थान तक जानना चाहिए । इससे जितने योगस्थान हैं उतने ही ज्ञानावरणीय प्रदेश बन्धस्थान प्राप्त होते हैं । इसी प्रकार आयुकर्म को छोड कर शेष सात कर्मे के योगस्थान प्रमाण प्रदेश बन्धस्थान घटित कर लेना चाहिए । उपपाद योगस्थानों और एकान्तानुवृद्धि योगस्थानों के काल कर्म का बन्ध नहीं होता, इसीलिए आयुकर्म के उतने ही प्रदेश बन्धस्थान प्राप्त होते हैं जितने परिणाम योगस्थान होते हैं । यहाँ योगस्थानों से प्रदेशबन्धस्थान प्रकृति विशेष की अपेक्षा अधिक होते हैं। इसका विचार आगमानुसार करना चाहिए। इतना अवश्य है कि यह नियम आयुकर्म को छोडकर शेष सात कर्मों पर ही लागू होता है, आयु कर्म पर नहीं, क्यों कि उसके जितने परिणाम योगस्थान होते हैं उतने ही प्रदेशबन्ध स्थान पाये जाते हैं । आयु १५२ ' प्रकृति विशेष की अपेक्षा अधिक होते हैं ' इस वचन का दूसरा अर्थ यह है कि ऐसी प्रकृति अर्थात् स्वभाव है कि आठ कर्मों का बन्ध होते समय आयुकर्म को सब से अल्पद्रव्य प्राप्त होता है । उससे नाम और गोत्र प्रत्येक को विशेष अधिक द्रव्य प्राप्त होता है। उससे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय प्रत्येक को विशेष अधिक द्रव्य प्राप्त होता है। उससे मोहनीय कर्म को विशेष अधिक द्रव्य प्राप्त होता है । उससे वेदनीय को विशेष अधिक द्रव्य प्राप्त होता है । आयुकर्म के बिना सात कर्मों में तथा आयु और मोहनीय कर्म को छोडकर छह कर्मों में उक्त विधिसे ही द्रव्य प्राप्त होता है । जहाँ जिस प्रकार मूल प्रकृतियों को ध्यान में रखकर विचार किया उसी प्रकार आगमानुसार उत्तर प्रकृतियों में भी विचार कर लेना चाहिए । इस अर्थाधिकार में मूल व उत्तर प्रकृतियों का अन्य जितने अनुयोगद्वारों का अवलम्बन लेकर विचार किया गया है उन सबका इस निबन्ध में ऊहापोह करना सम्भव नहीं है । मात्र मूल प्रकृतियों की अपेक्षा ओ से बन्धस्वामित्व का स्पष्टीकरण यहाँ किया जाता है । ३. बन्धस्वामित्वप्ररूपणा स्वामित्व दो प्रकार का है— जघन्य और उत्कृष्ट । पहले उत्कृष्ट स्वामित्व का विचार करते हैं । वह इस प्रकार है— जो उपशामक और क्षपक उत्कृष्ट योग के द्वारा सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान में छह कर्मों का बन्ध करता है उसके मोहनीय और आयुकर्म को छोडकर शेष छह कर्मों का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होता है । जो सब पर्याप्तियों से पर्याप्त है तथा उत्कृष्ट योग से सात कर्मों का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध कर रहा है। ऐसा चारों गतियों में स्थित संज्ञी पञ्चेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि या सम्यग्दृष्टि जीव मोहनीय कर्म का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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