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________________ महाबंध इतना ही नहीं, किन्तु आगे चलकर त्रसादि दश युगल के जघन्य अनुभागबन्ध के स्वामी को सातासातावेदनीय के समान जानने की सूचना की है, जब कि महाबन्ध में इन प्रकृतियों के जघन्य अनुभागबन्ध का स्वामी मध्यम परिणामवाला ही लिया गया है। गोमटसार कर्मकाण्ड में विषय में अनियम देखा जाता है। प्रति समय उत्तरोत्तर वर्धमान या हीयमान जो संक्लेश या विशुद्धिरूप परिणाम होते हैं वे अपरिवर्तमान परिणाम कहलाते हैं तथा जिन परिणामों में स्थित यह जीव परिणामान्तर को प्राप्त होकर एक, दो आदि समयों द्वारा पुनः उन्हीं परिणामों को प्राप्त करता है उसके वे परिणाम परिवर्तमान परिणाम कहलाते हैं । इस दृष्टि से उक्त पूरा प्रकरण विचारणीय है। यह संक्षेप में मूल व उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा उत्कृष्ट और जघन्य स्वामित्व की मीमांसा है। विस्तार भय से अन्य अनुयोगद्वारों व भुजगार आदि अर्थाधिकारों का ऊहापोह यहाँ नहीं किया गया है। अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान प्ररूपणा जिन परिणामों से अनुभागबन्ध होता है उन्हें अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान कहते हैं। वे एक-एक स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानों के प्रति असंख्यात लोक प्रमाण होते हैं। किन्तु यहाँ पर कारण में कार्यका उपचार कर के अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानों से अनुभाग स्थान लिये गये हैं। प्रकृत में १२ अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं-अविभाग प्रतिच्छेदप्ररूपणा, स्थानप्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा, काण्डकप्ररूपणा, ओजयुग्मप्ररूपणा, षट्स्थानप्ररूपणा, अधस्तनस्थानप्ररूपणा, समयप्ररूपणा, वृद्धिप्ररूपणा, यवमध्यप्ररूपणा, पर्यवसानप्ररूपणा और अल्पबहुत्व । अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा-एक परमाणु में जो जघन्यरूप से अवस्थित अनुभाग है उसकी अविभागप्रतिच्छेदसंज्ञा है। इस दृष्टि से विचार करने पर एक कर्मप्रदेश में सब जीवों से अनन्तगुणे अविभागप्रतिच्छेद पाये जाते हैं। उनकी वर्ग संज्ञा है। ऐसे सदृश अविभागप्रतिच्छेदवाले जितने कर्मप्रदेश उपलब्ध होते हैं उनकी वर्गणा संज्ञा है। इससे एक अधिक अविभागप्रतिच्छेदों से युक्त जितने कर्मप्रदेश पाये जाते हैं उनसे दूसरी वर्गणा बनती है। प्रत्येक वर्गणा में अभव्यों से अनन्तगुणे और सिद्धों के अनन्तवे भागप्रमाण वर्ग पाये जाते हैं। इस प्रकार उत्तरोत्तर एक-एक अविभागप्रतिच्छेद की वृद्धि हुए, अभव्यों से अनन्तगुणी और सिद्धों के अनन्तवे भागप्रमाण वर्गणाएँ उत्पन्न होती हैं। उन सब वर्गणाओं के समूह को स्पर्धक कहते हैं। इसी विधि से दूसरा स्पर्धक उत्पन्न होता है। इतनी विशेषता है कि प्रथम स्पर्धक की अन्तिम वर्गणा के एक वर्ग में जितने अविभागप्रतिच्छेद होते है उससे दूसरे स्पर्धक की प्रथम वर्गणा के एक वर्ग में सब जीवों से अनन्तगुणे अविभागप्रतिच्छेद होते है। इस प्रकार अभव्यों से अनन्तगुणे और सिद्धों के अनन्तवे भागप्रमाण स्पर्धकों का एक स्थान होता है । स्थानप्ररूपणा-एक समय में एक जीव में जो कर्म का अनुभाग दृष्टिगोचर होता हैं उसकी स्थानसंज्ञा है । नाना जीवों की अपेक्षा ये अनुभाग बन्धस्थान असंख्यात लोकप्रमाण होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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