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________________ महाबंध १२७ षट्खण्डागम का तीसरा खण्ड बन्ध स्वामित्वविचय है । यद्यपि क्षुल्लक बन्ध में सब जीवों में से कौन जीव बन्धक है और कौन जीव अबन्धक है इसे स्पष्ट किया गया है पर वहाँ अधिकारी भेदसे बन्ध को प्राप्त होने वाली प्रकृतियों का नाम निर्देश नहीं किया गया है और न यही बतलाया गया है कि उक्त किस गुणस्यान तक किन प्रकृतियों का बन्ध करते हैं और उसके बाद वे उन प्रकृतियों के अबन्धक होते है यह सब ओघ और आदेश से सप्रयोजन स्पष्ट करने के लिए इस खण्ड को निबद्ध किया गया है । षट्खण्डागम का चौथा खण्ड वेदना है और पाँचवें खण्ड का नाम वर्गणा है । इन दोनों खण्डों में से प्रथम खण्ड में कर्म प्रकृति प्राभृत के कृति और वेदना अर्थाधिकारों को तथा दूसरे खण्ड में स्पर्श, कर्म और प्रकृति अर्थाधिकारों के साथ बन्धन अर्थाधिकार के बन्धनीय अर्थाधिकार को निबद्ध किया गया है । इस प्रकार उक्त पांच खण्डों में निबद्ध विषय का सामान्य अवलोकन करने पर विदित होता है कि उक्त पाँचों खण्डों में कर्म विषयक सामग्रीका भी यथासंभव अन्य सामग्री के साथ यथास्थान निबद्धीकरण हुआ है। फिर भी बन्धन अर्थाधिकार के बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान इन चारों अर्थाधिकारों को समग्र भाव से निबद्धीकरण नहीं हो सका है अतः इन चारों अर्थाधिकारों को अपने अवान्तर भेदों के साथ निबद्ध करने के लिए छटवे खण्ड महाबन्ध को निबद्ध किया गया है । वर्तमान में जिस प्रकार प्रारम्भ के पांच खण्डोंपर आचार्य वीरसेन की धवला नामक टीका उपलब्ध होती है उस प्रकार महाबन्ध पर कोई टीका उपलब्ध नहीं होती । इसका परिमाण अनुष्टुप् श्लोकों में चालीस हजार श्लोक प्रमाण स्वीकार किया गया है । आचार्य वीरसेन के निर्देशानुसार यह आचार्य भूतबली की अमर कृती है यद्यपि इसका मूल आधार बन्धन नामक अर्थाधिकार है, परन्तु उसके आधार से आचार्य भूतबली ने इसे निबद्ध किया है, इसीलिए यहाँ उसे उनकी अमर कृति कहा गया है । २ महाबन्ध इस नामकरण की सार्थकता यह हम पहले ही बतला आये हैं कि षट्खण्डागम सिद्धान्त में दूसरे खण्ड का नाम क्षुल्लक बन्ध है और तीसरे खण्ड का नाम बन्ध स्वामित्व विचय है । किन्तु उनमें बन्धन अर्थाधिकार के चारों अर्थाधिकारों में से मात्र बन्धक अर्थाधिकार के आधार से विषय को सप्रयोजन निबद्ध किया गया है । तथा वर्गणाखण्ड में वर्गणाओं के तेईस भेदों का सांगोपांग विवेचन करते हुए उनमें से प्रसंगवश ज्ञानावरणादि कर्मों के योग्य कार्माण वर्गणाएं हैं यह बतलाया गया है । वहाँ बन्ध तत्त्व के आश्रय से बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान इन चारों को एक शृंखला में बाँधकर निबद्ध नहीं किया गया है जिसकी पूर्ति इस खण्ड द्वारा की गई है, अतः इसका महाबन्ध यह नाम सार्थक है । ३ निबद्धीकरण सम्बन्धी शैली का विचार किसी विषय का विवेचन करने के लिए तत्सम्बन्धी विवेचन के अनुसार उसे अनेक प्रमुख अधिकारों में विभक्त किया जाता है । पुनः अवान्तर प्रकरणों द्वारा उसका सर्वांग विवेचन किया जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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