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________________ १२४ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ कर्मविशेषों का इस अधिकार में बहुत गहन, सूक्ष्म एवं अद्वितीय विस्तृत वर्णन किया गया है । अन्त में बतलाया गया है कि जब तक यह जीव कषायों का क्षय हो जानेपर और वीतराग दशा के पालने पर भी छद्मस्थ पर्याय से नहीं निकलता है, तब तक ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तरायकर्म का नियम से वेदन करता है । तत्पश्चात् द्वितीय शुक्लध्यान से इन तीनों घातिया कर्मों का भी अन्तर्मुहूर्त में ही समूल नाश करके सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और अनन्तवीर्यशाली होकर धर्मोपदेश करते हुए वे आर्यक्षेत्र में आयुष्य के पूर्ण होने विहार करते हैं । मूल कसायपाहुडसुत्त यही पर समाप्त हो जाता है । किन्तु इस के पश्चात् भी के चार अघातिया कर्म शेष रहते हैं, उनकी क्षपणविधि बतलाने के लिए चूर्णिकार ने अधिकार कहा । पश्चिम स्कन्ध-अधिकार — सर्वज्ञ और सर्वदर्शी सयोगी जिन अपनी आयु के अन्तर्मुहूर्त शेष रह जाने पर पहले आवर्जित करण करते हैं और तृतीय शुक्ल ध्यान का आश्रय लेकर केवलि समुद्धात करते हैं । इस समय दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्धात के द्वारा नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मों की उत्तरोत्तर असंख्यात गुणी निर्जरा करके उनकी स्थिति को अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कर देते हैं । पुन: चौथे शुक्लध्यान का आश्रय लेकर योग निरोध के लिए आवश्यक सभी क्रियाओं को करते हुए अयोगी जिनकी दशा का अनुभव कर शरीर से मुक्त हो जाते हैं और सदा के लिए अजर-अमर बन जाते हैं । वीतराग केवली पश्चिम स्कन्ध उपसंहार - इस प्रकार इस सिद्धान्त ग्रन्थ में यह बतलाया गया है कि यह जीव अनादि काल से कषायों से भरा हुआ चला आ रहा है और निरन्तर उन्हींके उदय से प्रेरित होकर, आत्म स्वरूप से अनभिज्ञ रह कर और पर पदार्थों में इष्ट-अनिष्ट की कल्पना करके राग-द्वेष किया करता है । जब यह संसारी प्राणी राग-द्वेष को दूर करने का प्रयत्न नहीं करेगा, तब तक उस का संसार से उद्धार नहीं हो सकता । राग-द्वेष के उत्पादक कषाय है । कषाय की जातियां चार हैं— अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, और संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ । इनमें अनन्तानुबन्धी कषाय सम्यक्त्व की घातक है, अप्रत्याख्यानावरण कषाय देश संयम की घातक है, प्रत्याख्यानावरण कषाय, सकल संयम की घातक है और संज्वलन कषाय यथाख्यात संयम की घातक है । यतः अनन्तानुबन्धी कषाय का घातना दर्शन मोह के अभाव किये बिना संभव नहीं है, अतः सर्व प्रथम जीव को मिथ्यात्वरूप अनादिकालीन दर्शन मोह के अभाव के लिए प्रयत्न करना पडता है । यह प्रयत्न तभी संभव है, जब कि कषायों का उदय मन्द हो; क्यों कि कषायों के तीव्र उदय में जीव की मनोवृत्ति अत्यन्त क्षुब्ध रहती है । यही कारण है कि प्रधान रूप से सम्यक्त्व का घातक दर्शन मोह के होने पर भी अनन्तानुबन्धी कषाय को भी सम्यक्त्व का घातक कहा गया है। सम्यक्त्व के तीन भेद हैं— औपशमिक सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्व । प्रथम दोनों सम्यक्त्व उत्पन्न होकर छूट जाते हैं, अतः सम्यक्त्व के स्थापित्व के लिए उसकी घातक दर्शनमोह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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