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________________ श्री धवलसिद्धान्त ग्रंथराज १०३ चौथे खंड का नाम 'वेदना' है । इस खंड में सर्वप्रथम वह मंगलाचरण है जो श्री गौतम गणधर ने किया था। मूल रूप से इसके दो भेद है। १. कृति अनुयोगद्वार, २. वेदना अनुयोगद्वार । कृति अनुयोगद्वार में औदारिक आदि पांच शरीरों की संघातन, परिशातन और संघातन-परिशातन कृति का कथन है। वेदना अनुयोगद्वार में ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों की द्रव्य वेदना, क्षेत्र वेदना, काल वेदना, भाव वेदना तथा प्रत्यय स्वामित्व वेदना, गति, अनन्तर, सन्निकर्ष, परिमाण, भागाभाग अल्पबहुत्व का कथन है। पाँचवा वर्गणा नामक खंड है। इसमें कर्म प्रकृतियों तथा पुद्गल की तेइस वर्गणाओं का विशेष कथन है। मनोवर्गणा तथा भाषा वर्गणा चार चार प्रकार की और कार्मण वर्गणा आठ प्रकार की बतलाई गई है। ज्ञानावरण कर्म के लिये जो कार्मण वर्गणा है उस कार्मण वर्गणा से दर्शनावरण आदि कर्मों का बन्ध नहीं हो सकता है। इस खंड में प्रत्येक शरीर वर्गणा निगोद शरीर (साधारण शरीर) वर्गणा का भी सविस्तार कथन है। छटवां खण्ड महाबन्ध है । इस खण्ड में मूल कर्म प्रकृति व उत्तर कर्म प्रकृतियों की अपेक्षा प्रकृति बन्ध, स्थिति बन्ध, अनुभाग बन्ध व प्रदेश बन्ध का सत् , संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व इन आठ अनुयोग द्वारा चौदह मार्गणाओं में सविस्तार कथन है। उत्तर कर्म प्रकृति प्रकृतियों के बन्ध प्रत्यय का कथन करते हुए तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध का कारण सम्यक्त्व और अहारक शरीर नाम कर्म प्रकृति के बन्ध का कारण संयम को बतलाया है इस प्रकार गणधर रचित द्वादशांग सूत्रों में सम्यक्त्व और संयम को भी बन्ध का कारण कहा है। ___ "आहारदुर्ग संजमपञ्चयं । तित्थपरं सम्मत्तपच्चयं ।" [महाबन्ध, पु. ४, पृ. १८६] वर्तमान में जो आगम अर्थात शास्त्र उपलब्ध है उन सब में षट्खण्डागम शास्त्र सर्व श्रेष्ठ है । क्योंकि यह एक ऐसा शास्त्र है जिसमें द्वादशाङ्ग के सूत्र ज्यों के त्यों हैं। श्री पुष्पदंत व भूतबलि आचार्यों का स्थान सर्वोपरि है, क्योंकि सर्व प्रथम उन्होंने ही द्वादशांग के सूत्रों को संकलित कर षटखण्डागम शास्त्र की रचना की है। "पणमवि पुप्फदंतं दुकयंतं दुण्णयंधयार-रविं। भग्ग-सिव-भग्गा-कंटयमिसि-समिइ-वइम सयादंतं ॥ पणमह कय-भूय-बलिं केस-वास-परिभूय बलिं । विणिहय-वम्मह-पसरं वड्ढाविय-विमल-णाण-वम्मह-पसरं॥" जो दुष्कृत अर्थात हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह रूप पापों का अन्त करने वाले हैं (जिन्होंने पंचमहाव्रत धारणकर हिंसा आदि पांच पापों का अन्त कर दिया है । ) जो कुनय (निरपेक्ष नय) रूपी . अन्धकार के नाश करने के लिये सूर्य के समान हैं अर्थात अनेकान्त व स्याद्वाद रूप प्रकाशमान हैं जिन्होंने मोक्षमार्ग के कंटक (मिथ्यात्व, अज्ञान, और असंयम) को नष्ट कर दिया है। जो ऋषियों की सभा (संघ) के अधिपति आचार्य हैं और निरन्तर जो पंचेन्द्रियों का दमन करने वाले हैं, ऐसे पुष्पदंत आचार्य को मैं प्रणाम करता हूं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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