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________________ श्री धवलसिद्धान्त ग्रंथराज इस दर्शन-ज्ञान-चारित्र की एकाग्रता से चारित्र मोहनीय का क्षय होता है। चारित्र-मोहनीय कर्म का क्षय होने पर ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्तराय कर्म का क्षय होता है। ___ “आगमहीणो समणो नेवप्पाणं परं वियाणादि। अविजाणतो अढे खवेदि कम्माणि किध भिक्खू ।" [प्रवचनसार ३३३] जिनके जिनागम रूप चक्षु नहीं हैं वे पुरुष मोक्षमार्ग में अंधे है और जीव अजीव को नहीं जानते। अतः वे मोह का नाश नहीं कर सकते । जिसके मोह का नाश नहीं हुआ उसके कर्मों का नाश भी नहीं हो सकता। "आगमः सिद्धान्तः'' अर्थात आगम सिद्धान्त को कहते हैं। जीव अजीव आदि पदार्थों को जानने के लिये सिद्धान्त शास्त्रों के अध्ययन की अत्यन्त आवश्यकता है इसके बिना जीव आदि पदार्थों का यथार्थ ज्ञान नहीं हो सकता। यथार्थ ज्ञान के बिना मोह का अभाव नहीं हो सकता अर्थात सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति नहीं हो सकती। ___ आगम के दो भेद हैं-१ अंग प्रविष्ट, २ अंग बाह्य । अंग प्रविष्ट बारह प्रकार का है । १ आचाराङ्ग, २ सूत्रकृताङ्ग, ३ स्थानाङ्ग, ४ समवायाङ्ग, ५ व्याख्याप्रज्ञप्ति-अङ्ग, ६ नाथधर्मकथाङ्ग ७ उपासकाध्ययनाङ्ग ८ अंतःकृदशांङ्ग ९ अनुत्तरौपपादिक दशाङ्ग, १० प्रश्नव्याकरणाङ्ग, ११ विपाक सूत्राङ्ग, १२ दृष्टिवादाङ्ग । इन बारह अंगों को ही द्वादशांग कहते हैं। बारहवें दृष्टिवादाङ्ग के पांच भेद हैं। १ परिकर्म, २ सूत्र ३ प्रथमानुयोग, ४ पूर्वगत और ५ चूलिका । चौथा भेद पूर्ववत चौदह प्रकार का है । अतः द्वादशांग ‘ग्यारह अंग चौदहपूर्व ' के नाम से भी प्रसिद्ध है। उपाध्याय परमेष्ठी के २५ गुण बतलाये हैं वे भी ११ अङ्ग १४ पूर्व की अपेक्षा से कहे गये हैं। इसके अतिरिक्त जो भी आगम हैं वह अगबाह्य है। __ भरतक्षेत्र में दुःखम् सुषम् चतुर्थ काल के तीन वर्ष साढे आठ मास शेष रह गये थे तब कार्तिक कृष्णा पंद्रस के दिन अन्तिम तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी निर्वाण को प्राप्त हुए। उनके पश्चात ६२ वर्ष में तीन अनुबद्ध केवल ज्ञानी हुए। उसके पश्चात १०० वर्ष तक पांच श्रुत केवली हुए। उसके पश्चात १८१ वर्ष तक दशपूर्वधारी रहे । फिर १२३ बर्ष तक ११ अंगधारी रहे । उसके पश्चात दस, नव व आठ अंगधारी ९९ वर्ष तक रहे। उसके पश्चात ११८ वर्ष में एक अंग के धारी पांच आचार्य हुए। इनको शेष अङ्गों व पूर्व के एक देश का भी ज्ञान था । इन पांच आचार्यों के नाम तथा काल निम्न प्रकार है: अहिवल्लि माघनंदि य धरसेणं पुप्फयंत भूदवली।। अडवीसं इगवीस उगणीसं तीस वीस वास पुणो ॥१६॥ [नन्दि आम्नाय की पट्टावली] इस पट्टावली अनुसार वीर निर्वाण के ५६५ वर्ष पश्चात एक अङ्ग के धारी अर्हब्दलि आचार्य हुए जिनका काल २८ वर्ष था। उसके पश्चात एक अङ्गधारी माघनन्दि आचार्य हुए इनका काल २१ वर्ष रहा। इसके १. धवल, पु. १, पृ. २९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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