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________________ पच्चीस साल का अहवाल श्री धवलादि सिद्धान्त ग्रन्थों की प्रतियां प्रकाश में आने का संक्षिप्त इतिहास श्रीमान् शेठ माणिकचंद पानाचंद जे. पी. बंबई इ. स. १८८३ में ससंघ यात्रा करते मुडबिद्री गये थे। वहां उन्हों ने रत्नों की प्रतिमाओं के दर्शन के साथ धवलादि सिद्धान्त ग्रंथों का दर्शन किया । ताडपत्रीय सिद्धान्त ग्रन्थ जीर्णशीर्ण अवस्था में है यह बात शेठजी के सूक्ष्म दृष्टि में आयी । उन्होंने श्री मा. भट्टारकजी तथा पंचों के साथ इस बाबत विचारविमर्श किया। उनका ध्यान इस ओर आकृष्ट किया । श्रवणबेलगोला के पं. ब्रह्मसूरि शास्त्री हि वे ग्रंथ पढ सकते हैं यह जानकारी भी प्राप्त की । उन सिद्धान्तग्रंथों के जीर्णोद्धार का उनके मन में जोरसे उठा । यात्रा से वापिस लौटते ही उन्होंने श्री. शेठ हिराचंद नेमचंद, सोलापुर को इन सिद्धान्तग्रंथों के बारे में समाचार दिया । वे अगले वर्ष में इ. स. १९४१ में I · ब्रह्मसूरि शास्त्री को साथ लेकर मुडबिद्री गये । शास्त्री द्वारा सिद्धान्त ग्रन्थ पढकर श्रवण किया। उनका जीर्णोद्धार कराने के अभिप्राय से पं. ब्रह्मसूरि शास्त्रीजी को उनकी प्रतिलिपि करने का आग्रह किया । इसके बीच अजमेर के शेठ मूलचंदजी सोनी, पं. गोपालदासजी बरैय्या के साथ मुडबिद्री गये । वहां के भट्टारक तथा पंचों के साथ विचारविनिमय कर के ब्रह्मसूरि शास्त्री द्वारा प्रतिलिपि कराने का कार्य शुरू हुआ । करीब तीनसो श्लोकों की प्रतिलिपि होने के पश्चात् कार्य स्थगित हुआ । १३ इ.स १८९५ में सेठ माणकचंदजी पानाचंद, सेठ हिराचंद नेमचंद आदि महानुभावों ने उन ग्रंथों की प्रतिलिपि कराने का निश्चय किया । इस कार्य के लिए १४००० रु. का चंदा इकट्ठा हुआ । पं. ब्रह्मसूरि शास्त्री को मासिक १२५ तनखा देकर कार्य का आरंभ हुआ । उनकी मदद के लिए मिरज के पं. गजपती को भेजा गया । श्रीजयधवला की १५०० श्लोक प्रमाण हिस्से की प्रतिलिपि होने के पश्चात् पं. ब्रह्मसूरि के स्वास्थ्य में बिघाड होकर उनका स्वर्गवास होगया । प्रतिलिपि का कार्य चालू था । पं. गजपति · शास्त्री को नागरी लिपि में धवल जयधवल की प्रतिलिपि का कार्य पूरा करने को सोलह साल लगे । उसी समय मुडबिद्री के पं. देवराज सेठी, शांताप्पा उपाध्याय तथा ब्रह्मण्य इन्द्र द्वारा उक्त ग्रंथों की कानडी लिपि में प्रतिलिपि कराई गई । महाधवल की कानडी प्रतिलिपि पं. नेमीराजजी द्वारा कराने का प्रबंध किया गया । १९१८ में उसकी प्रतिलिपि पूर्ण हुई । सेठ हिराचंद नेमचंद ने पं. लोकनाथ शास्त्री द्वारा महाधवल की देवनागरी लिपि में प्रतिलिपि करवाई । इस प्रकार सन १८९६ से १९२२ तक यह कार्य चलताही रहा । 1. इस कार्य में करीब बीस हजार रुपये खर्च हुआ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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