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________________ समन्तभद्र भारती ८७ तिरस्कार करती हुई उसे क्षणमात्र में भस्म करने लगी, क्योंकि वह भोजन मर्यादित और नीरस होता था उससे जठराग्नि की तृप्ति होना संभव नहीं था, उसके लिये तो गुरु स्निग्ध, शीतल और मधुर अन्नपान जब तक यथेष्ट परिमाण में न मिलें, तो वह जठराग्नि शरीर के रक्त-मांसादि धातुओं को भस्म कर देती है। शरीर में दौर्बल्य हो जाता है, तृषा, दाह और मूर्छादिक अन्य अनेक बाधाएं उत्पन्न हो जाती हैं। बढ़ती हुई क्षुधा के कारण उन्हें असह्य वेदना होने लगी, 'क्षुधासमानास्ति शरीरवेदना' की नीति चरितार्थ हो रही थी। समन्तभद्र ने जब यह अनुभव किया कि रोग इस तरह शान्त नहीं होता, किन्तु दुर्बलता निरन्तर बढ़ती ही जा रही है। अतः मुनिपद को स्थिर रखते हुए इस रोग का प्रतीकार होना संभव नहीं है। दुर्बलता के कारण जब आवश्यक क्रियाओं में भी बाधा पड़ने लगी, तब उन्होंने गुरुजी से भस्मक व्याधि का उल्लेख करते हुए निवेदन किया कि भगवन् ! इस रोग के रहते हुए निर्दोष चर्या का पालन करना अब अशक्य हो गया है। अतः अब मुझे आप समाधि मरण की आज्ञा दीजिये । परन्तु गुरु बड़े विद्वान, तपस्वी, धीर-वीर एवं साहसी थे, और समन्तभद्र की जीवनचर्या से अच्छी तरह परिचित थे, निमित्तज्ञानी थे, और यह भी जानते थे कि समन्तभद्र अल्पायु नहीं हैं। और भविष्य में इनसे जैनधर्म की विशेष प्रभावना होने की संभावना है। ऐसा सोच कर उन्होंने समन्तभद्र को आदेश दिया कि समन्तभद्र, तुम समाधिमरण के सर्वथा अयोग्य हो । तुम पहले इस वेष को छोड़कर भस्मक व्याधि को शान्त करो । जब यह व्याधि शान्त हो जाय, तब प्रायश्चित्त लेकर मुनिपद ले लेना । समन्तभद्र तुम्हारे द्वारा जैनधर्म का अच्छा प्रचार और प्रसार होगा। समन्तभद्र ने गुरु आज्ञा से मुनिपद तो छोड़ दिया और अनेक वेषों को धारण कर भस्मक व्याधि का निराकरण किया। जब व्याधि शान्त हो गई तब वे प्रायश्चित्त लेकर मुनिपद में स्थित हो गए। उन्होंने वीरशासन का उद्योत करने के लिये विविध देशों में विहार किया। स्वामी समन्तभद्र के असाधारण गुणों का प्रभाव तथा लोकहित की भावना से धर्मप्रचार के लिये देशाटन का शिलालेखादि से कितना ही हाल ज्ञात होता है। उससे यह भी जान पड़ता है कि वे जहां जाते थे, वहां के विद्वान उनकी वाद घोषणाओं और उनके तात्त्विक भाषणों को चुपचाप सुन लेते थे, पर उनका विरोध नहीं करते थे, इससे उनके महान् व्यक्तित्व का कितना ही दिग्दर्शन हो जाता है। जिन-जिन स्थानों में उन्होंने वाद किया उनका उल्लेख श्रवण बेलगोल के शिलालेख के निम्न पद्य में पाया जाता है: पूर्व पाटलिपुत्रमध्यनगरे भेरी मया ताडिता । पश्चान्मालव-सिन्धु-ठक्क-विषये काञ्चीपुरे वैदिशे । प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभटं विद्योत्कटं संकटं । वादार्थी विचराम्यहं नरपते शार्दूलविक्रीडितम् ॥ आचार्य समन्तभद्र ने करहाटक पहुंचने से पहले जिन देशों तथा नगरों में वाद के लिये विहार किया था उनमें पाटलिपुत्र (पटना) मालवा, सिंधु, ठक्क( पंजाब )देश, काञ्चीपुर (कांजीवरम् )विदिशा ( भिलसा) ये प्रधानदेश थे, जहां उन्हों ने वाद की भेरी बजाई थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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