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________________ मूलाचार का अनुशीलन कहीं ठहरते हैं। हसी आदि नहीं करते । नीच कुलों में नहीं जाते। सूतक आदि दोष से दूषित शुद्धकुलों में भी नहीं जाते। द्वारपाल आदि के द्वारा निषिद्ध घरों में नहीं जाते। जहां तक भिक्षाप्रार्थी जा सकते हैं वहीं तक जाते हैं। विरोध वाले स्थानों में नहीं जाते। दुष्ट, गधे, ऊंट, भैंस, बैल, हाथी, सर्प आदि को दूर से ही बचा जाते हैं। मदोन्मत्तों के निकट से नहीं जाते । स्नान विलेपन आदि करती हुई स्त्रियों की ओर नहीं देखते । विनयपूर्वक प्रार्थना किये जाने पर ठहरते हैं। सम्यक विधिपूर्वक दिये गये प्रासुक आहार को सिद्ध भक्तिपूर्वक ग्रहण करते हैं। पाणि रूपी पात्र को छेद रहित करके नाभि के पास रखते हैं। हाथरूपी पात्र में से भोजन नीचे न गिराकर शुरशुर आदि शब्द न करते हुए भोजन करते है । स्त्रियों की ओर किञ्चित् भी नहीं ताकते। इस प्रकार भोजन करके मुख, हाथ, पैर धोकर शुद्धजल से भरे हुए कमण्डलु को लेकर चले आते हैं। धर्म कार्य के बिना किसी के घर नहीं जाते। फिर जिनालय आदि में जाकर प्रत्याख्यान ग्रहण करके प्रतिक्रमण करते हैं। षडावश्यक-साधु की उक्त दिनचर्या में षडावश्यकों का विशिष्ट स्थान हैं। वे हैं—सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग । मूलाचार (७/२०) में कहा है जं च समो अप्पाणं परे य मादूय सव्वमहिलासु। आपियपियमाणादिसु तो समणो तो य सामइयं ॥ यतः स्व और पर में सम है-रागद्वेष रहित है, यतः माता में और सब महिलाओं के प्रती सम है, प्रिय और अप्रिय में मान, अपमान में सम है इसी लिये उसे शमन या श्रमण कहते हैं और उसी के सामायिक होती है। अर्थात् सब में समभाव रखना ही सामायिक है। समस्त सावधयोग को त्यागकर तीन गुप्तिपूर्वक पांचो इन्द्रियों का निरोध करना सामायिक है। जिसकी आत्मा नियम संयम तप में लीन है उसी के सामायिक है, जो त्रस स्थावर आदि सब प्राणियों में समभाव है वही सामायिक है। आर्तध्यान रौद्रध्यान को छोड़कर धर्मध्यान शुक्लध्यान करना सामायिक है। साधु शुद्ध होकर खड़े होकर अपनी अंजलि में पिच्छिका लेकर एकाग्रमन से सामायिक करता है। उसके बाद चौबीस तीर्थङ्करों का स्तवन करता है कि मुझे उत्तम बोधि प्राप्त हो। यह स्तवन भी खड़े होकर दोनों पैरों के मध्य में चार अंगुल का अन्तर रखकर प्रशान्त मन से किया जाता है । गुरुओं की वन्दना कई समयों में की जाती है । वन्दना का अर्थ है विनयकर्म । उसे ही कृतिकर्म भी कहते हैं। सामायिक स्तवपूर्वक चतुर्विंशतिस्तव पर्यन्त जो विधि की जाती है उसे कृतिकर्म कहते हैं। प्रतिक्रमण काल में चार कृतिकर्म और स्वाध्याय काल में तीन कृतिकर्म इस तरह पूर्वाह्न में सात और अपराल में सात कुल चौदह कृतिकर्म होते हैं। इनका खुलासा टीका में किया है। एक कृतिकर्म में दो अवनति-भूमिस्पर्शपूर्वक नमस्कार, बारह आवर्त और चार सिर-हाथ जोड़कर मस्तक से लगाना होते है । कृत, कारित और अनुमत दोषों की निवृत्ति के लिये जो भावना की जाती है उसे प्रतिक्रमण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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