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________________ ७२ मूलाचार का अनुशीलन और दाढी के बालों का लुञ्चन करके यथाजात रूपधर (नग्न ) हो जाता है तथा साधु के आचार को श्रवण करके श्रमण हो जाता है। ___श्रमण के प्रकार-आचार्य कुन्दकुन्द ने श्रमण के दो प्रकार बताये हैं शुद्धोपयोगी और शुभोपयोगी। मुनि अवस्था में अर्हन्त आदि में भक्ति होना, प्रवचन के उपदेशक महामुनियों में अनुराग होना शुभोपयोगी श्रमण के लक्षण हैं । इसी तरह दर्शन ज्ञान का उपदेश देना, शिष्यों का ग्रहण और उनका पोषण करना, जिनेन्द्र की पूजा का उपदेश देना ये शुभोपयोगी श्रमण की चर्या है । कायविराधना न करके सदा चार प्रकार के मुनियों के संघ की सेवाशुश्रूषा भी शुभोपयोगी श्रमण का कार्य है। शुभोपयोगी मुनि रोग, भुख, प्यास और श्रम से पीड़ित श्रमण को देख कर अपनी शक्ति के अनुसार वैयावृत्य करता हैं (प्रव० ३।४७-५२) मूलाचार में श्रमण के ये दो प्रकार नहीं किये हैं। संघ के संचालक-मूलाचार में कहा है कि जिस संघ में आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणधर ये पांच न हों उसमें साधु को नहीं रहना चाहिए ( ४।१५५)। जो शिष्यों-साधुओं के अनुशासन में कुशल होता है उन्हें दीक्षा देता है वह आचार्य है। धर्म का उपदेशक मुनि उपाध्याय है। संघ के प्रवर्तक को, चर्या आदि के द्वारा उपकारक को प्रवर्तक कहते हैं। मर्यादा के रक्षक को स्थविर कहते है और गण के पालक को गणधर कहते है (४।१५६)। प्रवचनसार (३।१०) में एक दीक्षागुरु और निर्यापक का निर्देश मिलता है जो दीक्षा देता है उसे गुरु कहते हैं। यह कार्य प्रायः आचार्य कहते हैं । किन्तु व्रत में दूषण लगने पर जो प्रायश्चित्त देकर संरक्षण करते हैं वे निर्यापक कहे जाते हैं। आचार्य जयसेन ने इन्हें शिक्षागुरु और श्रुतगुरु कहा है। गण-गच्छ-कुल-संघ के भीतर संभवतया व्यवस्था के लिए अवान्तर समूह भी होते थे। तीन श्रमणों का गण होता था और सात श्रमणों का गच्छ होता था । टीकाकार ने लिखा है--' त्रैपुरुषिको गणः, साप्तपुरुषिको गच्छः' (४।१५३)। गा० ५।१९२ की टीका में भी टीकाकार ने गच्छ का अर्थ सप्त पुरुष सन्तान किया है-'गच्छे सप्तपुरुषसन्ताने ।' कुल का अर्थ टीकाकार ने (४।१६६) गुरुसन्तान किया है और गुरु का अर्थ दीक्षादाता। अर्थात् एक ही गुरु से दीक्षित श्रमणों की परम्परा को कुल कहते हैं । पूज्यपादस्वामी ने भी सर्वार्थसिद्धि में (९।२४) दीक्षाचार्य की शिष्य सन्तती को कुल कहा है । और स्थविर सन्तति को गण कहा है। ____ मूलाचार में (५।१९२ ) वैय्यावृत्य का स्वरूप बतलाते हुए कहा है-'बाल वृद्धों से भरे हुए गच्छ में अपनी शक्ति के अनुसार वैयावृत्य करना चाहिये ।' किन्तु आगे समयसाराधिकार में कहा है वरं गणपवेसादो विवाहस्स पवेसणं । विवाहे रागउप्पत्ति गणो दोसाणमागरो ॥१२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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