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________________ प्रवचनसार अरसमरुवमगंधं अवत्तं चेदणागुणमसद्दं । जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिठ्ठि संठाणं ॥ १७२ ॥ आत्मस्वरूप विधिमुख से और प्रतिषेधरूप से इस गाथा में कहा है । इस गाथा की टीका में तो आत्मा की परनिरपेक्ष स्वायत्तता का पुकार पुकार कर उद्घोष ही किया है। इसकी टीका में टीकाकार आचार्य की प्रज्ञा गहराई के साथ वस्तु के स्वरूप को स्पर्शती है । ६५ ऐसे अमूर्त आत्मा को स्निग्धरूक्षत्व का अभाव होने पर बन्ध कैसे होता है ऐसा मौलिक प्रश्न उपस्थित करके उसका सुविस्तृत उत्तर १७४ से १९० तक १७ गाथाओं में विवेचनपूर्वक आया है । Jain Education International प्रश्न अपने में मौलिक है। आचार्यों का उत्तर भी मौलिक है । आत्मा रूपी पदार्थ को जैसे देखता है जानता है, वैसे उसके साथ बद्ध भी होता है । अन्यथा अरूपी आत्मा रूपी पदार्थ को कैसे जानता देखता ? यह प्रश्न भी उपस्थित होना अनिवार्य है । ज्ञान की स्वच्छता में पदार्थ का प्रतिबिंब सहज होता है । आत्मा का संबंध उन ज्ञेयाकारों से है न कि पदार्थों से, परंतु उन ज्ञेयाकारों में पदार्थ कारण होने से आत्मा उन रूपी पदार्थों को जानता है ऐसा कहा जाता है। ठीक उसी तरह आत्मा का संबंध तो आत्मा में परद्रव्य के एकत्वबुद्धि से जायमान रागद्वेषमोहरूप सोपराग उपयोग है उससे है । हां ! उस सोपराग उपयोग में कर्म या अन्य पदार्थ निमित्त मात्र होने से आत्मा को उन पदार्थों का बंधन है ऐसा व्यवहार से कहा जाता है । तत्त्वतः परद्रव्य के साथ आत्मा का कोई संबंध नही । यथार्थ में कार्यकारण भाव भी एक द्रव्याश्रित होता है, इसलिए आत्मा के लिए वास्तविक बंध तो उसके एकरूप चेतन - परिणाम में जो सोपराग उपयोग है वह है । उससे आत्मा का संबंध है । तन्मयता है, एकत्व परिणाम है, वही बंध है । इसलिए उस सोपरक्त उपयोग को ही भाव बंध कहते हैं । आत्मा में परिस्पन्द के कारण कर्मों का आना चालू रहता है, और यदि आत्मा विकारों से उपरक्त है अर्थात भावबंधरूप है तो वे समागत कर्म आत्मा में ठहरते है, चिपकते है इसलिए भावबंध ही द्रव्यबंध का कारण होने से प्रधान कहा गया है । यह सोपरक्त उपयोग ही स्निग्धरूक्षत्व की जगह जीव बंध है, कर्म का अपने स्निग्धरूक्षत्व के साथ जो एकत्व परिणाम है वही अजीव बंध है और आत्म प्रदेश तथा कर्म प्रदेशों का विशिष्ट रूप से अवगाह एक दूसरे के लिए निमित्त हो इस प्रकार का एक क्षेत्र अवगाह सो उभय बंध है । इस प्रकार बंध मोक्ष का यह सार है कि रागी कर्म बांधता है और वीतरागी कर्मों से मुक्त होता है । वह सोपराग परिणाम मोहरागद्वेष से तीन प्रकार का है। उनमें मोह और द्वेष तो अशुभ है और परिणाम शुभ अशुभ भेद से दो प्रकार का है। शुभपरिणाम पुण्य बन्ध का कारण होने से पुण्य तथा अशुभ परिणाम पापकर्मों का कारण होने से पाप कहा जाता है । यह त्रिभूमि का रूप सोपराग परिणाम परद्रव्य प्रवृत्त एवं पर लक्ष्य से ही होते है । आत्मा का निरूपराग शुद्ध उपयोग मात्र स्वद्रव्य सापेक्ष एवं स्वलक्ष्य के कारण होने से, स्वद्रव्य प्रवृत्त है । तथा यथाकाल कर्मक्षय का और स्वरूप प्राप्ति का कारण है । ९ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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