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________________ तत्त्वार्थसूत्र और उसकी टीकाएं ५३ इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र में किन विषयों का निर्देश किया गया है इसका संक्षेप में विचार किया । वृत्ति, भाष्य और टीका ग्रन्थ १. सर्वार्थसिद्धि दिगम्बर परम्परा में सूत्र शैली लिपिबद्ध हुई तत्त्वार्थसूत्र और परीक्षामुख ये दो ऐसी मौलिक रचनाएं हैं जिनपर अनेक वृत्ति, भाष्य और टीका ग्रन्थ लिखे गये हैं । वर्तमान काल में उपलब्ध — सर्वार्थसिद्धि ' यह तत्त्वार्थसूत्र पर लिखा गया सबसे पहला वृत्ति ग्रन्थ है । यह स्वनामधन्य आचार्य पूज्यपाद की अमर कृति है । यह पाणिनि व्याकरण पर लिखे गये पातञ्जल भाष्य की शैली में लिखा गया है । यदि किसी को शान्त रस गर्भित साहित्य के पढने का आनंद लेना हो तो उसे इस ग्रन्थ का अवश्य ही स्वाध्याय करना चाहिए । आचार्य पूज्यपाद के सामने इस वृत्ति ग्रन्थ की रचना करते समय षट्खण्डागम प्रभृति बहुविध प्राचीन साहित्य उपस्थित था । उन्होंने इस समग्र साहित्य का यथास्थान बहुविध उपयोग किया है' । साथ ही उनके इस वृत्ति ग्रन्थ के अवलोकन से यह भी मालूम पडता है कि इसकी रचना के पूर्व तत्त्वार्थसूत्र पर (टीकाटीप्पणीरूप) और भी अनेक रचनाएं लिपिबद्ध हो चुकीं थीं। वैसे वर्तमान में उपलब्ध यह सर्वप्रथम रचना है । श्वेताम्बर परम्परामान्य तत्त्वार्थाधिगमभाष्य इसके बाद की रचना है । सर्वार्थसिद्धि के अवलोकन से इस बात का तो पता लगता है कि इसके पूर्व श्वेताम्बर आगम साहित्य रचा जा चुका था, परन्तु तत्त्वार्थाधिगमभाष्य लिखा जा चुका था इसका यत्किंचित् भी पता नहीं लगता । इतना अवश्य है कि भट्टाकलंकदेव के तत्त्वार्थवार्तिक में ऐसे उल्लेख अवश्य ही उपलब्ध होते हैं जो इस तथ्य के साक्षी हैं कि तत्त्वार्थाधिगमभाष्य उनके पूर्व की रचना है । इस लिए सुनिश्चित रूप से यह माना जा सकता है कि वाचक उमास्वाति का तत्त्वार्थाधिगम भाष्य इन दोनों आचार्यों के मध्य काल में किसी समय लिपिबद्ध हुआ है। * सर्वार्थसिद्धि वृत्ति की यह विशेषता है कि उसमें प्रत्येक सूत्र के सब पदों की व्याख्या नपे-तुले शब्दों में सांगोपांग की गई है । यदि किसी सूत्र के विविध पदों में लिंगभेद और वचनभेद है तो उसका भी स्पष्टीकरण किया गया है" । यदि किसी सूत्र में आगमका वैमत्य होने का सन्देह प्रतीत हुआ तो उसकी स बिठलाई गई है' और यदि किसी सूत्र में एकसे अधिकवार 'च' शब्दकी तथा कहीं 'तु' आदि शब्दका प्रयोग किया गया है तो उनकी उपयोगिता पर भी प्रकाश डाला गया है । तात्पर्य यह है कि यह रचना इतनी सुन्दर और सर्वांगपूर्ण बन पडी है कि समग्र जैन वाङ्मय में उस शैलीमें लिखे गये दूसरे वृत्ति, भाष्य या टीका ग्रन्थका उपलब्ध होना दुर्लभ है । यह वि. सं. की पाँचवी शताब्दि के उत्तरार्ध से लेकर छठी १. देखो, प्रस्तावना, सर्वार्थसिद्धि, पृ. ४६ आदि । ३. देखो, अ. ७ सु. १३ । ५. अ. देखो, १, सू. १ आदि । ७. अ. २, सू. १ । Jain Education International २. देखो, प्रस्तावना, सर्वार्थसिद्धि, पृ. ४२ । ४. देखो तत्त्वार्थ भाष्य अ. ३ सू. १ आदि । ६. दखो, अ. ४, सू. २२ । ८. देखो, अ. ४, सू. ३१ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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