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________________ तत्वार्थसूत्र और उसकी टीकाएं पं. फूलचंद्रजी सिद्धान्त शास्त्री, बनारस इस अवसर्पिणी काल में अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर के मोक्षलाभ करने के बाद अनुबद्ध केवली तीन और श्रुतकेवली पांच हुए हैं । अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु थे । इनके कालतक अंग-अनंग श्रुत अपने मूल रूप में आया है। इसके बाद उत्तरोत्तर बुद्धिबल और धारणाशक्ति के क्षीण होते जाने से तथा मूल श्रुत के प्रायः पुस्तकारूढ किए जाने की परिपाटी न होने से क्रमश: वह विच्छिन्न होता गया है। इस प्रकार एक ओर जहाँ मूल श्रुत का अभाव होता जा रहा था वहाँ दूसरी ओर श्रुत परम्परा को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए और उसका सीधा सम्बन्ध भगवान् महावीर की दिव्यध्वनि से बनाये रखने के लिए जो अनेक प्रयत्न हुए हैं उनमें से अन्यतम प्रयत्न तत्वार्थसूत्र की रचना है। यह एक ऐसी प्रथम उच्च कोटि की रचना है जब जैन परम्परा में जैन साहित्य की मूल भाषा प्राकृत का स्थान धीरे धीरे संस्कृत भाषा लेने लगी थी, इसके संस्कृत भाषा में लिपिबद्ध होने का यही कारण है। १. नाम इसमें सम्यद्गदर्शन के विषयरूप से जीवादि सात तत्त्वों का विवेचन मुख्य रूप से किया गया है, इसलिए इसकी मूल संज्ञा 'तत्त्वार्थ' है। पूर्व काल में इसपर जितने भी वृत्ति, भाष्य और टीका ग्रन्थ लिखे गये हैं उन सबमें प्रायः इसी नाम को स्वीकार किया गया है। इसकी रचना सूत्र शैली में हुई है, इसलिए अनेक आचार्यों ने 'तत्त्वार्थसूत्र' इस नाम से भी इसका उल्लेख किया है। श्वेताम्बर परम्परा में इसके मूल सूत्रों में कुछ परिवर्तन करके इसपर वाचक उमास्वाति ने लगभग सातवीं शताब्दि के उत्तरार्ध में या ८ वीं शताब्दि के पूर्वार्ध में तत्त्वार्थाधिगम नाम के एक लघु ग्रन्थ की रचना की', जो उत्तर काल में तत्त्वार्थाधिगम भाष्य इस नाम से प्रसिद्ध हुआ। श्वेताम्बर परम्परा में इसे तत्त्वार्थाधिगम सूत्र इस नाम से प्रसिद्धि मिलने का यही कारण है। किन्तु वह परम्परा भी इसके 'तत्त्वार्थ' १. सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थवार्तिक, तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक आदि के प्रत्येक अध्याय की समाप्ति सूचक पुष्पिका आदि। जीवस्थान कालानुयोग द्वार, पृ. ३१६ ३. प्रस्तावना, सर्वार्थसिद्धि, पृ. ७२ से। ४. तत्त्वार्थाधिगम भाष्य, उत्थानिका, श्लोक २ । ३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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