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________________ श्री समयसार ३३ ही है। इसी कारण ज्ञानी की प्रत्येक क्रिया (भोगक्रिया भी) भेदविज्ञान के बल से आसक्ति बिना होती है, उसे रागादिनिमित्तक अनंत संसारसंबंधी आस्रवबंध भी नहीं होता । पूर्वबद्ध कर्म आस्रव हुए बिना खिर जाते है । सम्यग्दर्शन और सम्यग्दर्शन के आठों अंग वास्तव में निर्जरा का हेतु है । इसलिए ज्ञानी सर्व प्रकार निःशंक - निर्भय होता है । भय तो पर में ममत्व होनेपर संभवनीय है । वह संसार भोगों के प्रति निःस्पृह होता है । सम्यग्दृष्टि की कौनसी भी क्रिया सम्यक्त्व से ओत प्रोत होने के कारण वास्तव में निर्जरा हेतु है । शुद्धtय से भेदविज्ञान और वैराग्य यही निर्जरातत्व है और उसकी प्रतीति में आत्मा की ही प्रतीति है । धाधिकार पूर्वबद्ध कर्मों के उदय या उदय फलों में सुखदुःखों में ममत्वपूर्वक रत होना यह परसंग है यही बंध है। कर्मों का उदय होनेपर मोहराग-द्वेषरूप अध्यवसान भाव होते है अज्ञान अवस्था में जीव अपने को पर के सुखदुःखों का, जीवन-मरण का कर्ता मानता है । पर के कर्तृत्व के कारण अहंकार भावों से वह उन्मत्त ही है। पांच पापों में यदि कर्तृत्वबुद्धि बनी रहती तो बंध है ही परन्तु पांच व्रतरूप त्रिकल्पों में भी यदि अध्यवसान रूप में कर्तृत्वबुद्धि है तो वहां पर भी रागांश की विद्यमानता के कारण कर्म-बंध है । भगवान ने रागमात्र को जो हेय बतलाया है उससे पर संबंधी कर्तृत्वबुद्धि संपूर्ण अध्यवसायों को छुड़ाया है । अध्यवसान से रंगा हुआ उपयोग निमित्तभूत कर्मोदयरूप उपाधि से तन्मयता को प्राप्त होनेपर ही हो होता है । स्वाधीनता पूर्वक कर्मोदय के आधीन होनेपर ही रागादि उत्पन्न होते है । इसलिए यदि बंधन न हो ऐसी अपेक्षा है तो स्वभाव - सन्मुख होकर अध्यवसानों का अभाव करना ही होगा । पर पदार्थ बंध के कारण नहीं होते, अध्यवसान बंध के कारण है । परपदार्थ तो केवल अध्यवसानों के निमित्तभूत या आश्रयभूत हो सकते है । इन परपदार्थों का जहाँ बुद्धिपूर्वक स्वीकार है वहाँ विकार भाव या अध्यवसानों की सत्ता अवश्यंभावी है । पर में राग करना ही 'परसंग' कहलाता है । मात्र बाहरी संयोग परसंग नहीं है यह परसंग ही बंध का कारण प्रसिद्ध है न कि बाह्य वस्तु । बाह्य वस्तुको बंध का कारण मानना यह अपना पाप दूसरे के माथे रखना होगा । वास्तव में रागादि अध्यवसान ये बंधतत्त्व सिद्ध होते है । रागादि अध्यवसानों को हेय रूपसे स्त्रीकृत करना ही शुद्ध आत्मा की प्रतीति है । मोक्षाधिकार आत्मा और बंध को साक्षात् पृथक करना यह मोक्ष है । केवल बंधके स्वरूप का ज्ञान या बंध संबंधी विचार परंपरा भी मोक्षका हेतु नहीं । शुभस्वरूप धर्मध्यान में इनका अंतर्भाव होता है । कर्मेका प्रतिक्षण उदय होकर उनकी यथाक्रम निर्जरा होती है यह भी कोई मोक्ष का हेतु नहीं, कारण अज्ञानी कर्मोदय में रागद्वेष करता है । अपने प्रज्ञा के द्वारा उन्हें पृथक नहीं करता । इसलिए उनकी बंध परंपरा में खण्ड नहीं ५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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