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________________ श्री समयसार ३१ हेतु, स्वभाव, अनुभव, और आश्रय ये चार की अपेक्षा से पापपुण्य में भेद है ऐसा व्यवहारवादी का पूर्व पक्ष है । पुण्यपाप में तीव्र कषाय और मन्द कषाय रूप शुभाशुभ भावों में सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो कर्महेतुक होने से पुद्गलस्वभावी होने से, दोनों का विपाक पुद्गलमय होने से और दोनों मात्र बन्धमार्गाश्रित होने से उक्त चारों प्रकार से अभेद ही है । वे दोनों भाव मोक्ष के लिए निश्चय से कारणरूप एवं धर्मरूप नहीं है । पुण्यपाप से परे वीतरागभाव ही धर्म है और वह मोक्ष के लिए कारण रूप है । मन्द कषाय रूप शुभपरिणामों को शुद्धनय द्वारा निषेध करके हेय बतलाया जाता है । इसलिए आत्मा अशरण नहीं बन जाता, स्वयं शुद्ध आत्मा ही शुद्ध नयावलम्बी के लिए पूर्ण शरण है । आत्मा आश्रय बिना व्रत -तप को बालव्रत और बालतप कहा है इसमें भी कोई आचार्यों का उद्देश है । सविकल्प अवस्था में राग की भूमिका में उनका होना और अवशता से रहना यह बात दूसरी और उन्हें उपादेय मानकर श्रद्धा - ज्ञान - चारित्र का आधार - आश्रय बनाना यह बात दूसरी है । गाथाओं में स्वयं आचार्य कुन्दकुन्द लोहशृंखला और सुवर्णशृंखला का दृष्टांत देकर इसे सुस्पष्ट करते है यह कथन उपक्षणीय नहीं है। सम्यग्दृष्टि, राग वह चाहे शुभ या अशुभ हो उन्हें बन्धके कारण रूप में हि स्वीकार करता है । धर्म - दृष्टि से हरगिज नहीं । कर्म नय का एकांत से अवलम्ब करके मात्र शुभोपयोग में मग्न जीव मोक्षमार्ग से दूर है वैसे ज्ञाननय का एकांत अवलम्ब कर आत्मम्मुख - आत्माविभोर न बनकर ज्ञान विकल्पों में हि मग्न प्रमादशील पुरुषार्थहीन जीव भी कषायमूर्ति है, मोक्षमार्ग से दूर ही है । परमार्थतः विचारा जाय तो एक ज्ञायकस्वरूप शुद्ध आत्मा का अवलम्बपूर्वक श्रद्धा - ज्ञान - चारित्र को उपादेय मानकर संयोगवश सविकल्प राग की भूमिका में बुद्धि से प्रवृत्त ज्ञानी ही अनुभूति में पुण्यपापातीत स्वरूप मग्न दशा अनुभव करते हुए मुक्ति प्राप्त करते है । आवाधिकार १३ वी अधिकार गाथा में सात तत्त्वों का यथार्थ लक्षण निश्चित किया गया है । आस्राव्य और आस्रावक अथवा जीवविकार और विकार - हेतु ( कर्म ) दोनों को ' आस्रव' संज्ञा दी गयी है, जीव अनादि- बद्ध होने से मिथ्यात्व - अविरति - कषाय- योगरूप द्रव्य प्रत्यय उसे अनादि से विद्यमान है । उन्हीं के सद्भावों में अभिनव कर्मों का आस्रव होता है । यहाँ पर भी पूर्वबद्ध कर्मों के उदय क्षण में होनेवाले रागद्वेष • मोहरूप विभाव-भाव - आस्रवभाव उन कारणों की कारणता में निमित्त है । भाव यह है रागादि आस्रवभाव -यदि होते है तो पूर्वबद्ध द्रव्य प्रत्यय अवश्यहि नूतन आस्रव के लिए कारण बन जाते है, अन्यथा नहीं । इसलिए रागद्वेषमोहरूप विकारी भावही वास्तव में आस्रव तत्त्व है । यदि जीव स्वयं I विकार न करे तो वे स्वरूप प्रत्यय क्या करेंगे? पृथ्वीस्कंध की तरह पूर्वबद्ध कर्मस्कंधों के साथ केवल होंगे । ज्ञानी जीव रागद्वेषमोह भावों को औपाधिक एवं ' पर ' रूप से जानता है । प्राप्त नहीं होता इसीलिए आस्रव तत्त्व की हेयरूप से प्रतीति करता है । यह प्रतीति उपयोग शुद्ध आत्मा संबंध मात्र को प्राप्त उन में तन्मयता को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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