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________________ २६ आ. शांतिसागर जन्मशताद्वि स्मृतिग्रंथ शुद्ध नय से जीवादि नव तत्त्वोंका विश्लेषण करने से शुद्ध आत्मा की प्रतीति होती है और वही सम्यग्दर्शन है यह कथन का सार है। ग्रंथका विषयविन्यास और विस्तार आत्मा और कर्मोकी अनादि बंध पर्याय के लक्ष्य से नव पदार्थों की भेदरूप प्रतीति होती है। तत्त्वोंका विश्लेषण और जानने की सीमातक प्रयोजन भूत होते हुए भी अभेद स्वभाव का लक्ष्य होनेपर इन भेदरूप नवतत्त्वों की प्रतीति नहीं होती, उनमें एक शुद्ध आत्म तत्त्व की प्रतीति धारा प्रवाही रूप से होती है। यही नवतत्त्वों की 'जानने' की प्रक्रिया मोक्षमार्ग में कार्यकारी है। इस शुद्धनय को नवतत्त्वों का वर्णन और आविष्कार इस ग्रंथका हार्द और विस्तार है । इसी आशय को लेकर मूल ग्रंथ में समय प्राभृत में १ जीवाजीवाधिकार, २ कर्ता कर्म अधिकार, ३ पुण्य पापाधिकार, ४ आस्रवाधिकार, ५ संवराधिकार, ६ निर्जराधिकार, ७ बंधाधिकार, ८ मोक्षाधिकार और ९ सर्व विशुद्ध ज्ञानाधिकार इस प्रकार नव अधिकार प्रकरणोंका विभाजन हुआ है। संसार और मोक्ष के कारणों का विचार करने के लिए प्रस्तुत आचार्य ने जीव अजीव स्वरूपनिरूपणा के अनंतर परस्पर दोनों के बन्ध के कारणों का, कार्यकारणों का कर्ताकर्म सम्बन्ध का ज्ञान अत्यावश्यक होने से जीवाजीवाधिकार के अनंतर कर्ताकर्माधिकार की रचना अलौकिक रूप में की। और अंत में नवतत्त्वों में अंतर्व्याप्त एकतारूप सर्व विशुद्ध ज्ञान का आशय विशुद्धि के हेतु विशेष वर्णन किया गया जो क्रमप्राप्त ही है। अध्यात्म ज्ञान के तलस्पर्शी वेत्ता और भाषाप्रभु विद्वान आचार्य अमृतचन्द्र ने अपने मर्मस्पर्शी सर्वाङ्गसुन्दर स्वनामधन्या 'आत्मख्याति ' टीका में इसी ग्रन्थ को बारह अध्यायों में रखा । उन्हें इस विषय को नाट्य के रूप में प्रस्तुत करना अभिप्रेत है । विश्व के रंगमंचपर नवतत्त्वों का स्वाङ्ग नृत्य बतलाना था इसलिए प्रथम भाग को पूर्व रंग के रूप में प्रस्तुत किया। और अंतिम परिशिष्ट के रूप में शुद्धनय का निरूपण जो ग्रन्थ में आया है उसमें अनेकान्त का दिग्दर्शन कराया और उपाय-उपेय भाव का भी दिग्दर्शन कराया इस प्रकार बारह अध्याय होते है। परम शांतरस के पार्श्वभूमीपर नवतत्त्वों के नाट्य में अलौकिक स्वरूप में नवरसों का जो अपूर्व आविष्कार दिखाई देता है वह कहींपर अन्यत्र देखने में न आने से अपूर्व और अलौकिक है। इस टीका में तत्त्वज्ञान और काव्य की हद मानों एक होगई इस तरह समसमा संयोग और पूर्ण सुमेल है। आचार्य कुन्दकुन्द को अभिप्रेत शुद्ध आत्मतत्त्व का सूक्ष्म स्वरूपदर्शन आचार्य-अमृतचन्द्र ने अपनी अर्थवाही और सालंकार तथा अर्थगरिमा से झरती हुई प्रौढ भाषा प्रयोगों से साक्षात् कराने में कोई कसर नहीं रक्खी। भाषाने अर्थ का अनुधावन पूर्ण प्रामाणिकता से किया है। यदि यह कहा जाय कि, यहाँपर अमूर्त शुद्धात्मरूप परब्रह्म साकार हो गया और शब्दब्रह्म सचेत होगया तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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