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________________ विचारवंतों के दृष्टि में थे दूर नारि-कुल से अति भीरु यों थे औ-शील-सुन्दर-रमा-पति किन्तु यों थे की आपने न पर की वृष की उपेक्षा थी आपको नित-शिवालय की अपेक्षा ॥२३॥ प्रायः कदा चरण युक्त अहो धरा थी सन्मार्गरूढ-मुनि-मूर्ति न पूर्व में थी चारित्र का नव-नवीन-पुनीत पंथ भो ! किन्तु जो दिख रहा तव देन संत ॥२९ स्वामी तितिक्षु न बुभुक्षु, मुमुक्षु जो थे मोक्षेन्छु-रक्षक, न भक्षक, दक्ष औ थे ध्यानी, सुधी, विमल-मानस-आत्मवादी शुद्रात्म के अनुभवी तुम अप्रमादी ॥२४॥ ज्ञानी, विशारद, सुशर्म-पिपासु साधु औ जो-विशाल-नर-नारि-समूह, चारु सारे विनीत इनके पद-नीरजों में आसीन थे भ्रमर से निशि में दिवा में ॥३०॥ निश्चिंत हो निडर, निश्चल, नित्य भारी थे ध्यान, मौन धरते तप औ करारी थे शीत, ताप सहते गहते न मान रात्रिंदिनि स्वरसका करते सुपान ॥२५॥ संसार-सागर-असार-अपार-खार गंभीर-पीर सहता इह बार, बार भारी-कदाचरण-भार व मोह, धार धिग् धिक् अतः अबुध जीव हुवा न पार ३१ शालीनतामय सु जीवन आपका था आलस्य-हास्य विनिवर्जित शस्य औ था थी आपमें सरसता व कृपालुता थी औ आपमें नित-नितान्त-कृतज्ञता थी ॥२६॥ थे शेडबाल गुरुजी यक बार आये इत्थं अहो सकल मानव को सुनाये भारी प्रभाव मुझपे तव भारती का देखो ! पडा इसलिये मुनि हूँ अभी का ॥३२ ॥ युग्म॥ अच्छा, बुरा सब सदा न कभी रहे हैं यों जन्म भी मरण भी अनिवार्य ही हैं आचार्यवर्य मुनिवर्य समाधि ले के सानन्द देह तज, शान्ति गये अकेले ॥३३॥ थे आप शिष्ट, वृषनिष्ठ, वरिष्ठ, योगी संतुष्ट औ गुणगरिष्ठ, बलिष्ठ, यों भी थे अंतरंग-बहिरंग-निःशंक नंगे इत्थं न हो यदि, कुकर्म नहीं कटेगें ॥२७॥ था स्वच्छ, अच्छरु अतुच्छ चरित्र तेरा था जीवनाति भजनीय पवित्र तेरा ना कृष्य देह तव जो तप-साधना से यों चाहते मिलन आप शिवांगनासे ॥२८॥ छाई अतः दुख-निशा ललना-जनों में औ खिन्नता, शिथिलता, भयता, नरों में आमोद, हास-सविलास, विनोद सारे हैं लुप्त मंगल सुवाद्य अभी सितारे ॥३४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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