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________________ श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ अभयदान मिला। दीन-दुखी अपाहिजों को भोजन दिया गया । १,२२,८०० रुपये की राशि श्री M सेठ रायबहादुर कुन्दनमलजी ने दान में निकाली। इसका ब्याज भी शुभ कार्यों में लगाने का वचन दिया। : ५६ : उदय : धर्म - दिवाकर का इस प्रकार चातुर्मास में काफी धर्म प्रभावना हुई । इकतीसवाँ चातुर्मास (सं० १९८३ ) : उदयपुर ब्यावर चातुर्मास पूर्ण करके आपश्री बदनौर पधारे। वहाँ जोधा खटीक और जीवन खाँ मुसलमान ने जीवन पर्यन्त माँस न खाने का और जीव-हिंसा का त्याग किया । आपश्री देलवाड़ा में थे तभी उदयपुर के श्रावक लोग वहाँ आ पहुँचे और उदयपुर क्षेत्र में पधारने का आग्रह करने लगे। इनकी प्रार्थना स्वीकार हुई । श्रावकगण प्रसन्न हो गए। आपके आगमन का समाचार उदयपुर में बिजली की भांति फैल गया । आपकी कीर्ति उदयपुरनरेश हिन्दूकुलसूर्य महाराणा फतेहसिंहजी के कानों तक जा पहुँची । उनके सुपुत्र श्री युवराजकुमार सर भूपालसिंहजी ने सुनी तो कुमार साहब ने डोडी वाले मेहताजी, श्री मदनसिंहजी कोठारी, श्री रंगलालजी, श्री कारूलालजी आदि पदाधिकारियों को महाराजश्री के पास भेजा। प्रवचन सुनाने के लिए महलों में पधारने की विनती की गई। प्रवचन 'सज्जन निवास' उद्यान के समोद नामक महल में हुआ । इस प्रवचन में कई मुख्य अधिकारियों ने लाभ लिया । सदुपदेश से युवराजकुमार भूपालसिंहजी तथा अन्य सभी बहुत प्रभावित हुए । गुरुदेव श्री के उदयपुर पधारने और विहार करने के दिन जीव दया का पट्टा (सनद) लिख कर दिया । उस दिन का उपदेश अलग पुस्तकाकार भी प्रकाशित हुआ । उसके बाद हिदूकुलसूर्य श्री महाराणा फतेहसिंहजी की ओर से सन्देश लेकर श्री फतेहलालजी आये कि 'महाराणा साहब आपका उपदेश सुनना चाहते हैं । ' ने अपने चौदह शिष्यों सहित गुरुदेव 'शिवनिवास' नामक महल में पधारे। महाराणा भक्तिपूर्वक महाराजश्री का स्वागत किया । महाराणा साहब बोले "आपने यहाँ पधारने की बहुत कृपा की ।" महाराजश्री ने उत्तर दिया "यह तो हमारा काम है ।" इसके बाद आपने प्रवचन फरमाया । प्रवचन समाप्त होने पर महाराणाजी ने पूछा" महाराज साहब ! आप कितने दिन यहाँ और रुकेंगे ?" "चार-पांच दिन और रुक सकते अथवा कल भी विहार कर सकते हैं । किन्तु जिस दिन जायेंगे उस दिन का अगता पलवाने की सनद युवराजकुमार ने लिख दी है ।" महाराजश्री ने बताया । महाराणाजी बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने अपने उद्गार व्यक्त किए " आपके दर्शन करके मुझे बड़ी खुशी हुई। मुझे पहले से आपके आगमन की बात मालूम न थी।" इसके बाद उदयपुर निवासियों ने चातुर्मास की प्रार्थना की। बिहार से एक दिन पहले सायंकाल के समय सलुम्बर के रावतजी ओनाड़सिंहजी दर्शनार्थ आए । 'आया हूँ तो कुछ भेंट देना ही चाहिए' कहकर उन्होंने भिण्डर नाम के पशु का शिकार न करने की प्रतिज्ञा की । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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