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________________ ॥ श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ । चिन्तन के विविध बिन्दु : ५५४; 'त्रिलोकसार' में भी इसी प्रकार के उदाहरण उपलब्ध होते हैं । इसमें लिखा है कि इक्यासी सौ वाणवै का चौंसठवाँ भाग इस प्रकार लिखिये ८१६२ ६४ _ 'त्रिलोकसार' में भाग देकर शेष बचने पर उसको लिखने की विधि का भी उल्लेख किया है, जो आधुनिक विधि से भिन्न है । यथा ८१६४ में ६४ का भाग दें तो १२८ बार भाग जावेगा और २ शेष रहेंगे । अर्थात् १२८ २ को इस ग्रन्थ में इस प्रकार लिखा है १२८।२ शून्य का प्रयोग-० का प्रयोग आदि संख्या के रूप में प्रारम्भ नहीं हुआ अपितु रिक्त स्थान की पूर्ति हेतु प्रतीक के रूप में प्रयोग हुआ था । आधुनिक संकेत लिपि में जहाँ • लिखा जाता है वहाँ पर प्राचीनकाल में ० संकेत न लिखकर उस स्थान को खाली छोड़ दिया जाता था। जैसे ४६ का अर्थ होता था छियालीस और ४ ६ का अर्थ होता था चार सौ छः । यदि दोनों अंकों के मध्य जितना उपयुक्त स्थान छोड़ना चाहिए उससे कम छोड़ा जाता था तो पाठकगण भ्रम में पड़ जाते थे कि लेखक का आशय ४६ से है अथवा ४०६ से । इस भ्रम को दूर करने के लिए उस संख्या को ४ ६ न लिखकर ४.६ के रूप में अंकित किया जाने लगा। धीरे-धीरे इस प्रणाली का आधनिक रूप ४०६ हो गया। इस प्रकार के प्रयोग का उल्लेख प्राचीन जैन ग्रन्थों एवं मन्दिरों आदि में लिखा मिलता है। उदाहरणार्थ आगरा के हींग की मण्डी में गोपीनाथ जी के जैन मन्दिर में एक जैन प्रतिमा है जिसका निर्माण काल सं० १५०६ है, परन्तु इस प्रतिमा पर इसका निर्माण काल १५०६ न लिखकर १५ ॥ लिखा है। वर्ग के लिए चिह्न-किसी संख्या को वर्ग करने के लिए 'व' चिह्न मिलता है। यह चिह्न 'व' उस संख्या के बाद लिखा जाता है, जिसका वर्ग करना होता है । यथा 'ज जु अ' एक संख्या है जिसका अर्थ जघन्य युक्त अनन्त है । यदि इसका वर्ग करेंगे तो उसे इस प्रकार लिखेंगे -- ज जु अव इसी प्रकार धन का संकेत 'घ', चतुर्थ घात के लिए 'व-ब' (वर्ग-वर्ग), पाँचवीं घात के लिए 'व-घ-घा' (वर्ग घन घात), छठवीं घात के लिए 'घ-व' (धन वर्ग), सातवीं घात के लिए 'व-व-घ-घा' (वर्ग वर्ग घन घात) आदि संकेत उपलब्ध होते हैं। बगित-संवगित के लिये चिह्न-वगित-संवगित शब्द का तात्पर्य किसी संख्या का उसी संख्या तुल्य घात करने से है। जैसे ५ का वर्गित-संवर्गित ५५ हुआ। जैन ग्रन्थों में इसके लिये विशेष चिह्न प्रयोग किया है। किसी संख्या को प्रथम बार वर्गित-संगित करने के लिए इस प्रकार लिखा जाता है ना १६ त्रिलोकसार, परिशिष्ट, पृष्ठ ५ २० वही, परिशिष्ट, पृष्ठ ६ २१ अर्थसंदृष्टि, पृष्ठ ५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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