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________________ GRA : ५४३ : मिथ्यात्व और सम्यक्त्व : एक तुलनात्मक विवेश्री जैन दिवाकर - स्मृति-ग्रन्थ । ५. उपबृहण-बुहि धातु के साथ 'उप' उपसर्ग लगाने से उपबह शब्द निष्पन्न हुआ है जिसका अर्थ होता है वृद्धि करना, पोषण करना अपने आध्यात्मिक गुणों का विकास करना यह उपबहण है।“ सम्यक् आचरण करने वाले गुणिजनों की प्रशंसा आदि करके उनके सम्यक आचरण की वृद्धि में योग देना उपबृहण है। ६. स्थिरीकरण-साधनात्मक जीवन में कभी-कभी ऐसे अवसर उपस्थित हो जाते हैं जब साधक भौतिक प्रलोभन एवं साधनात्मक जीवन की कठिनाइयों के कारण पथच्युत हो जाता है। अतः ऐसे अवसरों पर स्वयं को पथच्यूत होने से बचाना और पथच्यूत साधकों को धर्ममार्ग में स्थिर करना, यह स्थिरीकरण है। सम्यग्दृष्टिसम्पन्न साधक को न केवल अपने विकास की चिन्ता करनी होती है वरन् उसका यह भी कर्तव्य है कि वह ऐसे साधकों को जो धर्ममार्ग से विचलित या पतित हो गये हैं, उन्हें मार्ग में स्थिर करे। जैनदर्शन यह मानता है कि व्यक्ति या समाज की भौतिक सेवा सच्ची सेवा नहीं है, सच्ची सेवा तो है उसे धर्ममार्ग में स्थिर करना । जैनाचार्यों का कथन है कि व्यक्ति अपने शरीर के चमड़े के जूते बनाकर अपने माता-पिता को पहिनावे अर्थात् उनके प्रति इतना अधिक आत्मोत्सर्ग का भाव रखे तो भी वह उनके ऋण से उऋण नहीं हो सकता, वह मातापिता के ऋण से उऋण तभी माना जाता है जब वह उन्हें धर्ममार्ग में स्थिर करता है। दूसरे शब्दों में, उनके साधनात्मक जीवन में सहयोग देता है । अतः धर्म-मार्ग से पतित होने वाले व्यक्तियों को धर्म-मार्ग में पुन: स्थिर करना यह साधक का कर्तव्य माना गया है। इस पतन के दो प्रकार होते हैं १. दर्शन विकृति अर्थात् दृष्टिकोण की विकृतता २. चारित्र विकृति अर्थात् धर्म-मार्ग या सदाचरण से च्युत होना। दोनों ही स्थितियों में उसे यथोचित बोध देकर स्थिर करना चाहिए। ७. वात्सल्य-धर्ममार्ग में समाचरण करने वाले समान शील-साथियों के प्रति प्रेमभाव रखना वात्सल्य है। आचार्य समन्तभद्र के अनुसार 'स्वमियों एवं गणियों के प्रति निष्कपट भाव से प्रीति रखना और उनकी यथोचित सेवा-शुश्रुषा करना वात्सल्य है। वात्सल्य में मात्र समर्पण और प्रपत्ति का भाव होता है। वात्सल्य धर्मशासन के प्रति अनुराग है। वात्सल्य का प्रतीक गाय और गोवत्स (बछड़ा) का प्रेम है। जिस प्रकार गाय बिना किसी प्रतिफल की अपेक्षा के गोवत्स को संकट में देखकर अपने प्राणों को भी जोखिम में डाल देती है ठीक इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि साधक का भी यह कर्तव्य है कि वह धार्मिकजनों के सहयोग और सहकार के लिए कुछ भी उठा नहीं रखे। वात्सल्य संघ धर्म या सामाजिक भावना का केन्द्रित तत्त्व है। ८. प्रभावना-साधना के क्षेत्र में स्व-पर-कल्याण की भावना होती है। जैसे पुष्प अपने सुवास से स्वयं भी सुवासित होता है और दूसरों को भी सुवासित करता है वैसे ही साधक सदाचरण और ज्ञान की सौरभ से स्वयं भी सुरभित होता है, साथ ही जगत् को भी सुरभित करता है । साधना, सदाचरण और ज्ञान की सुरभि द्वारा जगत के अन्य प्राणियों को धर्ममार्ग में आकर्षित करना, यही प्रभावना है। ६६ रत्नकरण्ड श्रावकाचार १६ ६८ पुरुषार्थ० २७ ७० पुरुषार्थ० ३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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